ये बेचारे कहाँ जायें???

आज मैं सो नहीं पा रही हूँ. सोचा था कि जल्दी सो जाऊँगी. इधर रोज़ ही तीन-चार बज जाते हैं. पर क्या करूँ?… बात ही ऐसी है. जब आपको मेरे जागने का कारण पता चलेगा तो आप मुझे या तो परले दर्ज़े की बेवकूफ़ समझेंगे या फिर पागल. हुआ यह कि लगभग एक बजे मैं कुछ ब्लॉग पढ़ रही थी, तभी मेरी गली में किसी पिल्ले की कूँ-कूँ सुनाई दी. पिल्ले मेरी कमज़ोरी हैं. मैं उन्हें बिल्कुल परेशान नहीं देख सकती. मुझे ये तो लगा कि ये मेरे ब्लॉक का नहीं हो सकता, क्योंकि मेरी गली में बस एक फ़ीमेल डॉग है ( कुतिया कहने में अटपटा लगता है) और वो जब पपीज़ देती है, तो मुझे पता लग जाता है. लगता है कोई बच्चा किसी और ब्लॉक से उठा लाया होगा और घर से डाँट खाने के बाद यूँ ही छोड़ दिया होगा.

पहले तो मैंने ध्यान नहीं दिया, लेकिन जब आवाज़ लगातार आती रही तो मैंने बालकनी से नीचे झाँका. एक पिल्ला बेचारा ठंड से बचने के लिये आश्रय ढूँढ़ रहा था. कभी किसी स्कूटर के नीचे जाकर छिपने की कोशिश करता तो कभी किसी घर के दरवाजे पर कुछ देर रुकता. मुझसे रहा नहीं गया. मैंने अपने कमरे में ताला बंद किया और पहुँच गयी उसके पास. उस समय रात के सवा दो बज रहे थे. मैं जब तिमंज़िले से नीचे उतरी, तो ग्राउंड फ़्लोर के लड़के कॉलसेंटर के अपने काम से लौटे ही थे. उन्होंने अचरज़ से मुझे देखा. पर पूछा कुछ नहीं. उनको पता है कि मैं कभी भी कुछ भी कर सकती हूँ.

तो…मैं पिल्ले को उठा लायी. उसके पंजे बर्फ़ जैसे ठंडे थे. कमरे में आकर मैंने हीटर जलाया. उसके पंजे सेंके. उसे कटोरी में दूध दिया. वो गटगट करके आधी कटोरी दूध पी गया…ओ माफ़ कीजियेगा, पी गयी, क्योंकि वो एक मादा है. फिर मैंने एक पुराने टूटे हुए टब में गुनगुने करके कुछ कपड़े रखे और उसको रखा. वो तुरंत सो गयी. मैं भी आकर बिस्तर पर लेटी. अभी वो बहुत छोटी पपी है, तो थोड़ी-थोड़ी देर बाद गूँ-गूँ करके… अपनी माँ को याद करने लगती है. मेरी नींद बहुत कच्ची है, इसलिये मैं उसकी इन आवाज़ों के कारण सो नहीं पा रही हूँ और रात के पौने चार बजे लिख रही हूँ. अभी वो शांत है और मुझे ये चिंता लग गयी है कि मैं उसको कल कहाँ छोड़ुँगी? महानगर के लोग देसी पिल्ले पालते नहीं. कुत्ते, जो पहले घरों में यूँ ही पल जाया करते थे, अब स्टेटस सिंबल बन गये हैं. अब बताइये… ये देसी कुत्ते कहाँ जायें? कुत्ते प्राचीनकाल से ही मनुष्य के साथी रहे हैं. गाँव-कस्बों के गली-मोहल्लों में तो इनके रहने की गुँजाइश अभी बची हुयी है, पर महानगरों में…?

फिर खटर-पटर हो रही है. उफ़…ये तो टब चबा रही है.

14 विचार “ये बेचारे कहाँ जायें???&rdquo पर;

  1. ओह …निराला की याद दिला दी आपने ..दारागंज(इलाहाबाद ) के अपने मोहल्ले से भीषण ठण्ड की एक रात में उन्होंने सद्यजाता कुतिया और पिल्लों की रक्षा के लिए अपना एकमात्र कम्बल उन पर ओढा दिया -खुद कई रात ठण्ड से कांपते रहे .
    आखिर पिल्ले की नैसर्गिक रणनीति कामयाब हो गयी और आपका वात्सल्य(केयर सालिसिटिंग रिस्पांस ) जागृत हो उठा …
    अब झेलिये -यह एक ऐसा आदिम रिश्ता है और इसका बोंड इतना मजबूत है की अब आप सहज ही उसे छोड़ नहीं पाएगीं और आपकी दिनचर्या दरहम बरहम हो जायेगी !
    अब आफत आपने पाली है आप ही निपटिये .जब भी आप बाहर जायेगीं वह असुरक्षा बोध से कूँ कूँ करेगी .उसके पास एक टिक टिक करती टेबल वाच रखें तब कहीं बाहर जायं .और हाँ उसकी माँ को ढूंढ ढहांध इस नन्ही आफत से शीघ्रातिशीघ्र छुटकारा पाईये ..

  2. मुक्ति जी !
    जब ब्लॉग – जगत में आया था तब आपको पढ़ते हुए मुझे लगता था
    कि आपके यहाँ बौद्धिकता का ही बोल-बाला है , पर सच कह रहा हूँ
    भाव-उर्जा की की जितनी आपूर्ति होते यहाँ से देख रहा हूँ , शायद वह
    अन्यत्र – दुर्लभ है .. ठगा – सा रह जाता हूँ अपनी पूर्व की धारणा के साथ ..
    .
    आज भी पिछली पोस्टों जैसी सजीवता है .. मिसिर जी को निराला याद
    आ रहे हैं और मुझे महादेवी वर्मा .. क्यों ? आप समझ चुकी होंगी ..
    मनुष्येतर जीवों पर उनकी लेखनी और आप की लेखनी में एक ही
    दवात की स्याही देख रहा हूँ .. यह केवल संयोग नहीं कि महादेवी जी
    भी संस्कृत की प्रकांड पंडित थीं .. आपको पढ़ते पढ़ते उनका संस्मरण ‘गिल्लू’
    याद आ रहा है ..
    .
    सहज ही आप कहना न भूलीं ” … शहर में कुत्ता स्टेटस सिम्बल बना हुआ है …… ” ….. आभार !

  3. ऐसे अवसर हमारी ज़िंदगी में इतने कम रह गये हैं…
    कि हम उन्हें अविस्मरणीय बना देना चाहते हैं…

    आखिर कुछ तो दवा हो, गम-ए-रुसवाई के लिए…

    बेहतर….

  4. इस प्रसंग का अंत भी पढ़ चुका हूँ ।
    अमरेन्द्र से इत्तेफाक है – महादेवी याद आ रही हैं ।
    संवेदना की झंकृत चेतना है आपमें । सहज मुखर होती है कविताओं में । पर यह प्रविष्टि भी कम नहीं ।

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