इस ३० जून को उनको गए पूरे चार साल हो गए… इन सालों में एक दिन भी ऐसा नहीं गुजरा, जब मैंने उन्हें याद ना किया हो… आखिर अम्मा के बाद वही तो मेरे माँ-बाप दोनों थे. परसों उनकी पुण्यतिथि थी और मज़े की बात ये कि मैं उदास नहीं थी. मुझे उनके कुछ बड़े ही मजेदार किस्से याद आ रहे थे… कुछ ऐसी बातें, जो उन्हें एक अनोखा व्यक्तित्व बनाती थीं… ऐसे व्यक्ति, जिनके बारे में लोग कहते थे कि वह अपने समय से पचास साल से भी आगे की सोच रखने वाले थे.
वे बहुत मस्तमौला थे,ये तो मैं पहले भी बता चुकी हूँ… बेहद निश्चिन्त, फक्कड़, दूरदर्शी, पर भविष्य की चिंता ना करने वाले . मेरी और उनकी उम्र में लगभग बयालीस-तैंतालीस साल का अंतर था. कहते हैं कि एक पीढ़ी के बाद ‘जेनरेशन गैप’ मिट सा जाता है, इसीलिये बाबा-दादी की पोते-पोतियों से ज्यादा पटती है. हमारी भी बाऊ से खूब जमती थी. हम उनसे इतने घुले-मिले थे कि उन्हें ‘तुम’ कहकर ही संबोधित करते थे. आमतौर पर बच्चे माँ को तुम और पिता को आप कहते हैं. इसका एक कारण यह भी था कि उन्हें अम्मा की भूमिका भी निभानी पड़ रही थी और उन्होंने हमें अम्मा से कम प्यार नहीं दिया.
हमें बचपन से ही उन्होंने तर्क करना सिखाया था और उनसे सबसे ज्यादा बहस मैं ही करती थी. उनकी हर वो बात, जो मुझे सही नहीं लगती, मैं काट देती थी, उसका विरोध करती थी, उन्होंने भी तो यही किया था… बस कोई बात इसलिए ना मान लेना कि उसे बड़े हमेशा से मानते आये हैं. मेरे तर्क करने पर वो खुश होते थे. मुझे लेकर बहुत निश्चिन्त भी थे. अक्सर कहते थे कि बाकी दो बच्चों की शादी-ब्याह की चिंता है, इसके लिए वर ढूँढना मेरे बस की बात नहीं… मेरे कॅरियर को लेकर भी उन्हें अधिक चिंता नहीं थी. ना जाने क्यों इतनी आश्वस्ति थी मेरे बारे में???
उनके मस्तमौलापन का एक किस्सा है. बाऊ ने अपनी पेंशन उन्नाव से आज़मगढ़ ट्रांसफर करवाई थी. डाक की लापरवाही से कागज़ कहीं खो गया और फिर से कागज़ बनवाने की औपचारिकता में पूरे एक साल उन्हें पेंशन नहीं मिली. अपनी जमा-पूँजी तो दीदी की शादी में लगा दी थी. पेंशन से ही घर चल रहा था. मैं पहले ही दीदी की शादी के बाद अकेली पड़ गयी थी. इस फाइनेंसियल क्राइसिस की वजह से भयंकर डिप्रेशन में चली गयी. अक्सर मैं ‘सुसाइडल’ हो जाती थी, हालांकि कभी सीरियस अटेम्प्ट नहीं किया… गेहूं में रखने के लिए लाई गयी सल्फास की गोलियों के पास जा-जाकर लौट आती थी. एक दिन बाऊ से पुछा कि “बाऊ, कितनी सल्फास की गोलियाँ खाने पर तुरंत मौत आ जायेगी.” उन्होंने अखबार पढ़ते-पढ़ते ही जवाब दिया, “बड़ों के लिए चार-पाँच काफी हैं, छोटे दो-तीन में ही भगवान को प्यारे हो जाते हैं. तुम चाहो तो दसों खा लो, जिससे कोई कमी ना रह जाए.” वे ऐसे बोल रहे थे, जैसे आत्महत्या विज्ञान में पीएच.डी. कर रखी हो… फिर अखबार हटाकर कहने लगे, “वैसे सल्फास खाकर मरना बहुत तकलीफ देता है. तुम ऐसा करो फाँसी लगा लो. वो जो तुम्हारे कमरे में पंखा है ना, उसी से लटक जाओ.” … बताओ, अपने बच्चों से कोई ऐसे कहता है… और मेरा क्या हाल हुआ होगा???… मैंने इतनी सीरियसली पूछा था. सोचा था कि दौड़े चले आयेंगे और कहेंगे “क्यों गुड्डू बेटा, तुम मरना क्यों चाहती हो” पर सब कचरा करके रख दिया… मुझे तब बड़ा गुस्सा आ रहा था, अब हँसी आती है.
मैं थोड़ी देर तक वहीं खड़ी रही. वो वापस अखबार पढ़ने लगे और थोड़ी देर बाद बोले, “तुम्हारे मरने से सारी समस्याएँ हल नहीं हो जायेंगी और ना दुनिया रुक जायेगी, बस तुम्हारा नुक्सान होगा. इतनी प्यारी चीज़ तुमसे छिन जायेगी और दोबारा कभी नहीं मिलेगी … तुम्हारी ज़िंदगी.” उसके बाद मैंने आत्महत्या के बारे में कभी नहीं सोचा… वो ऐसे ही थे.
जारी…
बाऊ जी बहुत ही सुन्दर बात बता कर चले गये । यह घटना आपको जीवन भर याद रहेगी और आपको दृढ़तर बनाती जायेगी ।
जब कभी मन टूटना चाहे तो बोलिये
न दैन्यम् न पलायनम् ।
न दैन्यम् न पलायनम् ।
ज़िन्दगी जीने का नया फ़लसफ़ा मिला..
’न दैन्यम् न पलायनम् ।’
आराधना जी,
समझ सकता हूं कि क्या बीतती है अपने से बेहद करीबी लोगों के इस तरह से न रहने पर…..हर वो चीज जो उनसे संबंधित होती है रह रह कर याद दिलाती रहती है।
जीवन में आ रही मुश्किलें और उनसे जुडे मसले भी शायद बाऊ जी की यादें दिलाने के लिए हों….. साथ ही हौसला अफजाई के लिए भी कि डरो मत….आगे बढ़ते रहो…ऐसी मुश्किलें तो जीवन का हिस्सा हैं।
हमारे बड़े जब साथ रहते हैं तब तो राह दिखाते ही हैं…..न रहने पर भी राह देखते रहने की गंजाइश छोड़ जाते हैं।
* गुंजाईश पढ़ें।
वे समग्रतः आत्म निर्भर और यथार्थवादी थे ,बच्चों को वैसा ही बनाना चाहते थे और कम से कम आपकी उनकी उसी विरासत और यशः काया को कायम किये हुए हैं -एक आदर्श पिता की आदर्श पुत्री ! शुभकामनाएं !और पिता जी को श्रद्धांजलि !
मुझे कुछ अपने संस्मरण भी लिखने पड़ेगें आपसे प्रेरित होकर ..अब यहाँ नहीं अन्यत्र !
बहुत अच्छा लगा – इतना सकारात्मक व्यक्तित्व! जीवन जैसा भी है, अमूल्य है। इन्सानी हौसले से ज़्यादा मज़बूत भी कुछ नहीं होता और कमज़ोर भी। श्रद्धाञ्जलि और नमन!
jaari rakhiye.. intezar hai … likhne ka tareeka itna sundar sahaj hai ki ..mann bandh jata hai aksharon se …alag baat hai ki yah hand writing aap ki nahi hai … 🙂
bahut logon ke liye prerna ka kam karegi ye post ..
व्यक्तिव है अपना अपना !
पता नहीं क्यों ..पर कभी कभी मै भी आपके पिताजी वाले तरीके से ही कई दिक्कतों को निपटाने का प्रयास करता हूँ |….सो इसी पर घमंड से चूर हुए जा रहा हूँ !
बस जारी रखिये !!
बहुत अच्छा लगा देख कर कि तुम उस दिन अवसाद से नहीं घिरी और बाऊ जी की जीना सिखानेवाली और उत्साह जगाने वाली बातों को याद किया.
सच जीवन की सच्चाइयों से घबरा घुटने टेक देना तो बहुत आसान है, पर डट कर उसका सामना करना बहुत मुश्किल..बाऊ जी ने जो सीख दी वे ज़िन्दगी भर तुम्हारे काम आएँगी और हालातों का सामना करना सिखाएंगी.
तस्वीर बताती है कि जितने सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी थे अंदर से ,उतने ही जीवट वाले.
श्रद्धांजलि और नमन
वे अपनी संतति से जिस तरह से पेश आये , ये कमाल हर पिता को कहां आता है ! आप खुशकिस्मत रहीं जो उन जैसे पिता मिले !
चीज़ों को देखने का उनका नजरिया औरों से हट के था तभी ना वो आपके पापा बाऊ जी थे.. श्रद्धांजली..
सुपर्ब पर्सोना…
ज़िन्दगी कितना कुछ सिखाती है न और हम हमेशा उसे भूल जाते है… तुमने सीखा हुआ सन्जोकर रखा है… ये पोस्ट पढकर मुझे अपने पुराने दिन याद आ गये जिन्हे मै इस भागती ज़िन्दगी मे भूल गया था..
तुम जो कुछ भी लिखती हो बहुत अच्छा लिखती हो..
बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट…. बाऊ जी का इतनी आसानी से कह जाना…. निगेटिव चीज़ों को पौज़ीटिवली डिमौरलाइज़ करना इतना आसान काम नहीं है…. बाऊ जी को मेरी श्रद्धांजलि….
बहुत अच्छी पोस्ट….
“सुराख अली”
A GOOD THING FOR OUR MOM-DAD
मुक्ति जी बाऊ जी इस तरह याद करना और आपकी शैली बहुत प्रभावपूर्ण है। जिंदादिल लोग समस्याओं का हल इसी तरह हैं। उन्हें याद भी इसी तरह किया जाना। शुभकामनाएं।
ओहो। कृपया इस तरह पढ़ें- जिंदादिल लोग समस्याओं का हल इसी तरह करते हैं।
“तुम्हारे मरने से सारी समस्याएँ हल नहीं हो जायेंगी और ना दुनिया रुक जायेगी, बस तुम्हारा नुक्सान होगा. इतनी प्यारी चीज़ तुमसे छिन जायेगी और दोबारा कभी नहीं मिलेगी … तुम्हारी ज़िंदगी.”
सच में आराधना. फिर कभी ऐसा नहीं सोचना.
ऐसी शख्सियत के बारे में जानकर अच्छा लगा.
बहुत अच्छा लगा यह संस्मरण। आत्महत्या पर इतने सहज तरीके से शायद वे इसलिये भी कह सके होंगे क्योंकि उनको तुम्हारी मजबूती पर भरोसा होगा।
आत्महत्या की बात करते हुये मैंने ये पोस्ट लिखी थी देखना-जीवन अमूल्य है
उन्होंने भी तो यही किया था… बस कोई बात इसलिए ना मान लेना कि उसे बड़े हमेशा से मानते आये हैं.
कितनी अच्छी बात कही थी उन्होंने. एकदम सूक्त वाक्य की तरह. आम लोगों से कितने अलग और बेफ़िक्र थे आपके बाउ जी. बहुत बढिया संस्मरण.
bahut hi prerk sansmarn
बहुत सही शिक्षा दी गयी आपको ! शुभकामनायें !
जिंदादिल लोग ऐसे ही मजाक में ही समस्याओं से निपटने की आसान राह दिखा देते हैं ..
आप खुशनसीब रहीं …
बहुत अच्छा संस्मरण …
आपने अपने बाऊ से परिचय कराया ….बच्चों को दृढ बनाने का काम माता पिता के विचार ही करते हैं…आपमें जितनी दृढ़ता है वो आपके पिता की ही दें है….अपने अनुभव को यहाँ सबके साथ बांटने के लिए आभार….इससे और लोग भी प्रेरणा लेंगे .
टिप्पणी के लिए उचित शब्द ही नहीं मिल रहे… आपकी इस तरह की पोस्ट्स पर मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है।
फुर्सत में इस पोस्ट की तरफ देखें।
प्रिय पप्पा हवे तो तमारा वगर
सचमुच बाऊ ऐसे ही होते है मेरे बाऊजी भी ऐसे ही थे ।
इंसान के विचार और उसका व्यक्तित्व ऐसा ही होना चाहिये जो दूसरों को प्रेरित कर सके और आपके बाऊ उनही मे से थे………………एक बेहद समझदार इंसान्………………ये बताइये………ब्लोगकुट पर पोस्ट कैसे लगाई जाती हैं इसका लोगो तो लगा है मेरे ब्लोग पर मगर वहाँ पोस्ट की हुयी पोस्ट इस पर नज़र नही आती।
post aur blog achcha laga….
kaafi der se pahucha is baar aapke blog par lekin kaafi kuchh sikh kar jaa raha hu. yah to sach hai ki aatm-hatya kisi baat-mudde ka hal nahi hota….
“तुम्हारे मरने से सारी समस्याएँ हल नहीं हो जायेंगी और ना दुनिया रुक जायेगी, बस तुम्हारा नुक्सान होगा. इतनी प्यारी चीज़ तुमसे छिन जायेगी और दोबारा कभी नहीं मिलेगी … तुम्हारी ज़िंदगी.”
..bahut hi sahi kaha..
.. bahut hi sundar dhang se aapne badi hi aatmiyata se likha… sach mein jaane walon kee we baaten jo hamen jindagi mein bahut kuch seekh de jaati hai, kabhi bhi nahi bhulayee jaa sakti hai.. der saber kaye awasaron mein we ham sambal pradaan karte hai…