मैं शायद कोई किताब पढ़ रही थी या टी.वी. देख रही थी, नहीं मैं एल्बम देख रही थी, बचपन की फोटो वाली. अधखुली खिड़की से धुंधली सी धूप अंदर आ रही थी. अचानक डोरबेल बजती है. मैं दरवाजा खोलती हूँ, कूरियर वाला हाथ में एक पैकेट थमाकर चला जाता है. मैं वापस मुडती हूँ, तो खुद को एक प्लेटफॉर्म पर पाती हूँ.
मैं अचकचा जाती हूँ. नंगे पैर प्लेटफॉर्म पर. कपडे भी घरवाले पहने हैं. अजीब सा लग रहा है. मेरे हाथ में एक टिकट है. शायद कूरियर वाले ने दिया है. अचानक एक ट्रेन आकर रुकती है और कोई अदृश्य शक्ति मुझे उसमें धकेल देती है. मैं ट्रेन में चढ़ती हूँ और एक रेलवे स्टेशन पर उतर जाती हूँ. ये कुछ जान जानी-पहचानी सी जगह है. हाँ, शायद ये उन्नाव है. मेरे बचपन का शहर. लेकिन कुछ बदला-बदला सा.
मुझे याद नहीं कि मैं इसके पहले मैं यहाँ कब आयी थी. स्टेशन के प्लेटफॉर्म साफ-सुथरे दिख रहे हैं. मैं स्वतः बढ़ चलती हूँ. यहाँ स्टेशन मास्टर का ऑफिस था, फिर टी.सी. ऑफिस, फिर बाहर जाने के लिए गेट. मैं कैलाश चाचा का बुकस्टाल ढूँढ रही हूँ, पर कहीं नहीं मिला… ये प्लेटफॉर्म भी बहुत लंबा है. लगता है खत्म ही नहीं होगा. मैं बाहर निकलती हूँ और खुद को एक वीरान सी जगह पर पाती हूँ. यहाँ से तो एक सड़क जाती थी, जिसके दाहिने कोने पर गोलगप्पे वाला ठेला लगाता था और बाईं ओर ‘संडीले के लड्डू’ वाले की दूकान थी… कुछ पेड़ भी थे, लेकिन अब यहाँ रेगिस्तान है और आँधी सी चल रही है. मैं आगे बढ़ चलती हूँ, शायद कचौड़ी गली मिल जाय.
अचानक देखती हूँ कि अम्मा मेरा हाथ पकड़कर खींच रही हैं ‘चलतू काहे ना’ अम्मा ने अपनी मनपसंद सफ़ेद ज़मीन पर नीले बूटे वाली उली साड़ी पहनी हुयी है, हमेशा की तरह पल्लू सर पर लिया हुआ है और तेज हवा से बचने के लिए उसका एक कोना मुँह में दबाये हुए हैं. मै लगभग घिसटते हुए अम्मा के साथ चल पड़ती हूँ. मैं एक छोटी सी बच्ची हूँ और मैंने लाल छींट वाली फ्राक पहनी है. हम कचौड़ी गली में हैं . खूब सारी दुकाने हैं– खील, बताशे, लइय्या, चूड़ा, चीनी वाले खिलौने. अम्मा एक-एककर सब सामान तुलवाकर अपनी कंडिया और झोले में रख रही है. मेरी नज़र प्रेम भईया की दूकान पर है, जहाँ रंग-बिरंगे टाफी-कम्पट-लेमनचूस अलग-अलग जारों में रखे हैं.
मेरा हाथ अम्मा के हाथ से छूट गया. वो पता नहीं कहाँ चली गयी? मैं गली में अकेली खड़ी हूँ. यहाँ तो कोई दूकान नहीं है या शायद बाज़ार बंद है. इसी मोहल्ले में बुकस्टाल वाले चाचा का घर था. घर के सामने एक बड़ा सा कुआँ, जिसके आस-पास हम बच्चों का जाना मना था. पर मैंने कई बार उसके अंदर झाँका था. कितना गहरा था वो और कितना अन्धेरा था उसके अंदर!…पर, वो गली ही नहीं मिल रही. मैं बहुत परेशान हूँ. नंगे पाँव हूँ. घर के कुचड़े-मुचड़े कपडे पहन रखे हैं. मौसम भी पता नहीं कैसा है. हर तरफ धूल ही धूल. धुंधलका सा छाया हुआ है. दूर तक कोई भी इंसान नहीं दिख रहा है.
मैं कचौड़ी गली से निकलकर बड़े चौराहे पहुँचती हूँ, पर ये वैसा नहीं है, जैसा मेरे बचपन में हुआ करता था. ये तो बहुत छोटा है. शायद बचपन में चीज़ें ज्यादा बड़ी दिखती हैं. मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है. रोना आ रहा है. यहाँ कितनी भीड़ है. मैं घबराकर बेतहाशा भागने लगती हूँ. ऐसा लगता है सारी भीड़ मेरे पीछे दौड रही है. सब तेजी से पीछे छूट रहा है, मेडिकल रोड, अमर बुक डिपो, प्रकाश मेडिकल स्टोर…स्टेशन रोड, जनता फुटवियर, गुप्ता चाचा की दूकान.
मैं हाँफते-हाँफते स्टेशन पर पहुँचती हूँ. इलेक्ट्रानिक्स बोर्ड पर गाड़ियों के बारे में सूचना चल रही है. सन 2000 में जाने वाली गाड़ी प्लेटफॉर्म नंबर 1 पर आयेगी, सन 1995 में जाने वाली गाड़ी प्लेटफॉर्म नंबर 3 पर आ रही है… सन 1980 में जाने वाली गाड़ी प्लेटफॉर्म नंबर 4 पर आ रही है… … गाडियाँ इतनी तेजी से आ-जा रही हैं कि पता नहीं चल पा रहा है कि कब रुकी, कब चली, पर कोई भी आने-जाने वाला नहीं दिख रहा है. ये कौन सी जगह है और कोई यात्री क्यों नहीं है? तभी कोई मेरे कान में बुदबुदा गया “कोई नहीं दिखेगा. इन गाड़ियों से जिसको जाना होता है, सिर्फ़ वही चढ़ पाता है. यहाँ बहुत से लोग हैं, पर कोई किसी को नहीं देख पाता.” मैंने आस-पास देखा तो कोई नहीं था. मैं बुरी तरह डर गयी. मुझे नहीं रहना यहाँ. मुझे वापस जाना है.
लेकिन ये सारी गाडियाँ तो अतीत में जा रही हैं. मैं हूँ कहाँ? कहीं मैं मैट्रिक्स के नियो की तरह दो दुनियाओं के बीच तो नहीं…
मैंने बहुत इंतज़ार किया. अभी तक मेरी गाड़ी नहीं आयी. शायद मैं अतीत में फँस गयी हूँ.
(त्योहारों पर ऐसे सपने ज्यादा आते हैं. प्रस्तुत पोस्ट परसों देखे गए एक सपने पर आधारित है.)
जबरदस्त लिखा है आपने। सिवाय इस एक पंक्ति को छोड़कर,,,(त्योहारों पर ऐसे सपने ज्यादा आते हैं. प्रस्तुत पोस्ट परसों देखे गए एक सपने पर आधारित है)
मेरे विचार से ये वो सपने हैं जो आदमी नींद में नहीं जागते हुए देखता है। खयालों में गुम जाता है…कोई पूछता है कि क्या हुआ? तो सिर्फ यही कह सकता है..कुछ नहीं..वैसे ही।
डिस्केलमर देने की जरूरत नहीं थी, हम तो एक सांस में पूरी पोस्ट पढ़ गये और लगा कि एक रात के नींद में सपने का इंतजाम हो गया ।
ऐसे सपने संवेदनशील लोगों को ही आते हैं।
बहुत बढिया लिखा है ..
.. आपको दीपावली की शुभकामनाएं !!
शुरु से अंत तक तेल की धार से प्रवाह में पढ़ गए… मेट्रिक्स के साथ साथ एक और फिल्म इंसेप्शन याद आ गई…जिसे देख कर मन में एक ही ख्याल आता है कि काश सपनों में जाकर सबको खुशियाँ बाँटी जा सकती….. अभी तो दीपावली के शुभ अवसर प्यार और आशीर्वाद ….
आपको एवं आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें…
aani to hai hi………………but abhi se ahat……………..
pranam.
यह तो मुझे विज्ञान कथा की मानिंद लगी ….गहन संवेदनाओं से सराबोर …कुछ कुछ डेजा वू सरीखी भी …अब आईये इस नयी दिवाली का स्वागत करें !
अम्मा कभी हाथ छुडा नहीं सकती कभी जा नहीं सकती लेकिन नियति सब करवा देती हैं . वही नियति हर गाडी का प्लेटफोर्म भी तय कर देती हैं और नियति की समय सारणी से क़ोई गाडी लेट नहीं होती . हो सकता हैं अम्मा का छूटा हाथ किसी और के स्पर्श से छूटा ना लगे . शायद कहीं किसी अम्मा की लाडली हाथ छुड़ा कर गयी हो और नियति उस अम्मा को कभी ना कभी तुमसे मिला दे . नियति का क्या हैं कहीं छुड़ा दिया कहीं मिला दिया .
अब आलेख पर क्या खुबसूरत सपना बुन दिया की अम्मा भी चकित होगी क्या इसी का हाथ छोड़ कर मै आयी थी .
और एक बात जरुर कहनी हैं
जब भी लखनऊ जाती हूँ और वापस आती हूँ ‘संडीले के लड्डू’बहुत याद आते हैं , अब तो किसी भी स्टेशन पर क़ोई इनको आवाज लगा कर नहीं बेचता दिखता . अपने बचपन मै खाया स्वाद आज भी मुझको याद आता हैं
दिवाली की बधाई , खूब सारा प्यार और अथाह स्नेह आशीष , मै हूँ .
नियो की तरह अपने पर यकीं भी तो आये।
बहुत सुन्दर!! इंतज़ार है जब आप अतीत से वापस आकर आगे का हाल सुनाएंगी.
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं!!
ओह गोड! क्या गज़ब चित्र खींचा है आराधना . बिना रुके बस पढते ही जाओ साथ साथ जैसे एक ही सपना देखा हो.
शानदार….. नीद की गहरे में लेकर चला गया ये लेख तो अपने को..जहाँ बैठ कर सपने देखते हैं…
बचपन के कहूँ तो ढेर सारे सपनो की कहानी लिखा सकता हूँ… लेकिन कोई अब के सपनो की कहानी पूछे तो नहीं बता पाउँगा..अब सपने आते ही नहीं..दिन भर की थकन से चूर सोते हैं तो आँखें अलार्म के साथ ही खुलती हैं…
लगता है अगला सपना अब जब भी कभी देखूंगा तो वो होगा… सपनो की मौत का होगा वो सपना…
प्रिय आराधना
ये हैं आपका यूनीक स्टाइल , कभी फीलिंग्स पर लिखी आपकी पोस्ट को पहली बार पढ़कर फिर हमेशा के लिए आपके ब्लॉग को सब्सक्राइब किया . आपकी ये पोस्ट बहुत बड़े बुद्धिजीवी के स्तर को दर्शाती हैं जैसे अपने लिखा की ” सन 1995 में जाने वाली गाड़ी प्लेटफॉर्म नंबर 3 पर आ रही है” ऐसी सी बाते कहा कोई आपकी तरह विचारो की अभिव्यक्ति में तारतम्य बिठा पाता हैं . पूरे पोस्ट की जान लगा वो matrix के नियो वाला उदाहरण . उम्दा लिखा दोहरी जिंदगी के बारे में जो की कमोबेश आज मन और बुद्धि के उच्च स्तर पर जीने वाले लोगो के लिए बड़ी दिक्कत दे रहा हैं क्योंकि समझ नहीं आता की एक साथ कई तरह के स्तरों या आयाम पर जिंदगी क्यों चल रही हैं और इसमें संतुलन कैसे लाये घर में रहे सब कुछ छोड़ कर भाग जाये . गाँव कस्बो की सादी शांत धीमी या ठहराव वाली जिंदगी या फिर आधुनिक शहरो से भरी मॉल संस्कृति या कार्पोरेट जगत की जटिल , हल्ले गुल्ले वाली और एकदम तेज पाता नहीं कौन सी जीनी चाहिए हमें . बस यही हैं दोहरी जिंदगी का भ्रम . शब्द कम हैं . बस कम शब्दों में ये हैं की परमात्मा ने आपको वो उस आयाम की समझ दी हैं जो आजकल बहुत दुर्लभ हैं . कहाँ गए इन बातो को कहने वाले लोग . अब तो कहे हुए को समझने वाले भी बहुत कम हैं. ईश्वर आपकी बहु आयामी प्रतिभा को शुभाशीर्वाद दे / आभार इस पोस्ट के लिए .
श्री हरि का एक किंचित साधक -वीरेंद्र
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!! श्री हरि : !!
गज़ब की पोस्ट … अतीत में विचरती हुई .नए से तारतम्य नहीं बैठा पायी … एक छोटी लडकी लाल छिनत का फ्राक पहने ..आम्मा की उंगली थामे हुए … और छूट जाता है हाथ .. बहुत संवेदनशील पोस्ट .
दीपावली की शुभकामनायें
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 27-10 – 2011 को यहाँ भी है
…नयी पुरानी हलचल में आज …
aaradhana mam ! great work ……..
टॉफ़ी,कम्पट, कंडी/डलिया,छींट वाली फ़्राकों के दिन।
अभी सुबह-सुबह इसे पढ़ा! मन कुछ उदास-उदास सा हो गया। 🙂
ये जो शीर्षक है (दिए के जलने से पीछे का अँधेरा और गहरा हो जाता है… )उसके जैसे भाव मेरे मन में लगातार आ रहे हैं दीवाली के आने के हल्ले के साथ। जैसे कि:
दीवाली पर अंधेरे के खिलाफ़ वारंट निकल गया,
वो दुबका रहा रात भर जलते दिये की आड़ में।
बहुत संवेदनशील पोस्ट! 🙂
पहले भी पढ़ा था, पर अब तत्क्षण-टीप से बचता हूँ, सो अब फिर आया।
यह तो है ही, जहाँ हम मौनातीत में जाते हैं, पंत की कविता ‘परिवर्तन’ की कुछ पँक्तियाँ याद आयीं:
“काल का अकरुण भृकुटि विलास
तुम्हारा ही परिहास!
विश्व का अश्रुपूर्ण इतिहास
तुम्हारा ही इतिहास!”
आभार!
आराधना जी ,
बहुत सार्थक,मार्मिक और भावपूर्ण प्रस्तुति …बधाई …
आपको और आपके परिवार को प्रकाश पर्व की अनन्त हार्दिक मंगलकामनाएं …
डा. रमा द्विवेदी
धन्यवाद! और शुभकामनाएँ!
सपने जिस तेजी से आते हैं,डराते हैं ,उतनी ही तेजी से चले भी जाते हैं….!
यथार्थ में यदि ठीक है तो हम जल्दी संभल भी जाते हैं !!
सचमुच मन से लिखती हैं आप।
——
ब्लॉगर बंधु क्षमा करें…
हमारा दिल तुम्हारी चाहतों की राजधानी है।
धन्यवाद !
माँ का हाथ तो साथ रहते भी छूट जाता है , जैसे हम बड़े होते जाते हैं …किसी छूटे हुए हाथ को थाम कर देखो ना …
बहुत भावुक होकर लिखा, यह आराधना कुछ अलग- सी लगती है !
बहुत देर से पढना हुआ , आजकल बहुत से ब्लॉग्स की फीड नहीं मिल पाती !
Thanks for nice and sweet dream….I like this
आपके ब्लाग पर पहली बार आयी हूं अंदाज अच्छा है।
आपका स्वागत है!
बहुत दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आना हुआ और एक बार फिर से आपको पढना अच्छा लगा , पढ़ते पढ़ते पता ही नहीं चला की पोस्ट खत्म हो गयी.
आराधना जी,
शुक्र है कि ये एक सपना था………………
इसे पढ़ते पढ़ते मैं भविष्य देख रही थी……………..
आने वाले दशकों में शायद यह सच भी हो जाए……..
इस शानदार प्रस्तुति के लिये धन्यवाद……….
सादर……………..
यशोदा
बहुत सार्थक,मार्मिक और भावपूर्ण प्रस्तुति …बधाई
आपको सपने भी काफी सार्थक आते हैं |
असल में मुझे ये एक सपने में बदलते वक्त का एहसास लगता है | एक छोटे शहर (उन्नाव) का अचानक बड़ा होना , भीड़ , अपनों का साथ छोड़ना वगैरह |
लेकिन परिवर्तन नियति का दस्तूर है शायद |
सादर
Reblogged this on आराधना का ब्लॉग and commented:
फिर फिर याद करना बचपन की छूटी गलियों को…