बचपन अलग-अलग मौसमों में अलग खुशबुओं और रंगों के साथ याद आता है। डॉ॰ अनुराग के एक अपडेट ने यादों को क्या छेड़ा, परत दर परत यादें उधड़ती गयीं, जिंदगी के पन्ने दर पन्ने पलटते गए। जैसे बातों से बातें निकलती हैं, वैसे ही यादों से यादें। अब बरसात का मौसम है, तो भुट्टे याद आये, भुट्टे याद आये तो अँगीठी याद आयी, फिर कोयला याद आया, फिर स्टीम इंजन और दिल बचपन की यादों में डुबकियाँ लगाने लगा। बहुत से छूटे हुए शब्द याद आये। बचपन के रहन-सहन का तरीका याद आया। तब की बातें सोचती हूँ और आज को देखती हूँ, तो लगता ही नहीं है कि ये वही दुनिया है… वो दुनिया सपने सी लगती है।
तब छोटे शहरों में खाना मिट्टी के तेल के स्टोव पर या अँगीठी पर बनता था। तब तक वहाँ तक गैस सिलेंडर नहीं पहुँचा था। रेलवे कालोनी के तो सारे घरों में कोयले की अँगीठी पर ही खाना बनता था क्योंकि स्टीम इंजन की वजह से कोयला आराम से मिल जाता था। कच्चा कोयला भी और पक्का कोयला भी।पक्का कोयला आता कहाँ से था, ये शायद नए ज़माने के लोग नहीं जानते होंगे। स्टीम इंजन में इस्तेमाल हुआ कोयला भी आधा जलने पर उसी तरह खाली किया जाता था, जैसे अंगीठी को खोदनी से खोदकर नीचे से खाली करते थे, जिससे राख और अधजला कोयला झड़ जाय और आक्सीजन ऊपर के कोयले तक पहुँचकर उसे ठीक से जला सके।.. इंजन के झड़े कोयले को बीनकर बेचने के लिए रेल विभाग ठेके देता था। बड़े रेलवे स्टेशनों का तो नहीं मालूम, पर छोटे स्टेशनों पर किसी एक ठेकेदार की मोनोपली चलती थी। उस ‘पक्के कोयले’ का इस्तेमाल अँगीठी को तेज करने में होता था और सबकी तरह हमलोग भी किलो के भाव से इसे ठेकेदार से खरीदते थे। बाऊ प्लास्टिक के बोरे में साइकिल के पीछे लादकर इसे घर लाते थे… … आजकल की पीढ़ी ने अपने पापा को साइकिल चलाते देखा है क्या?
बरसात में ये कोयला बड़े काम आता था क्योंकि अक्सर लकड़ी सीली होने के कारण कच्चा कोयला मुश्किल से जलता था। लकड़ी ? अँगीठी सुलगाने के लिए उसके अन्दर पहले लकड़ी अच्छे से जला ली जाती थी, उसके बाद कोयला डाला जाता था। रेलवे ट्रैक के बीच में पहले पहाड़ की लकड़ी के स्लीपर बिछाये जाते थे, वही खराब होने पर जब निकलते थे, तो रेलवे कर्मचारी सस्ते दामों पर अँगीठी के लिए खरीद लेते थे। ये लकड़ी अच्छी जलती थी और जलते समय उसमें से एक तारपीन के तेल जैसी गंध आती थी। अम्मा या दीदी कुल्हाड़ी से काटकर उसके छोटे-छोटे टुकड़े करती थीं। कितनी मेहनत लगती रही होगी उसमें, मैं नहीं जानती। मैं बहुत छोटी थी, केवल देखती थी। कोयला और लकड़ी आँगन में रखे जाते थे और बरसात में भीग जाते थे। इसलिए बरसात में अँगीठी सुलगाने में बहुत मुश्किल होती थी। जब अँगीठी काम लायक सुलग जाती थी, तो उसे अँगीठी आना कहते थे। तब उसे उठाकर बरामदे में रखा जाता था और उस पर अम्मा भुट्टे भूनती थीं। जब आँगन में झमाझम बारिश होती थी, तब हमलोग बरामदे में अम्मा के चारों ओर बैठकर अपने भुट्टे के भुनने का इंतज़ार करते थे…अभी तो न जाने कितने सालों से आँगन नहीं देखा और ना ही अम्मा के हाथ से ज्यादा अच्छा भुना भुट्टा खाया है… …!
मेरे बाऊ रेलवे क्वार्टर के सामने की जगह को तार से घेरकर क्यारी बना देते थे और उसमें हर साल भुट्टा बोते थे। कभी-कभी तो इतना भुट्टा हो जाता था कि उसे सुखाकर बाँधकर छत पर लगी रॉड में बाँधकर लटका दिया जाता था। फिर हमलोग कभी-कभी उसके दाने छीलकर अम्मा को देते थे और वो लोहे की कड़ाही में बालू डालकर लावा भूनती थीं। एक भी दाना बिना फूटे नहीं रहता था। भुट्टे के खेतों में तोते बहुत नुक्सान करते थे जिस दिन हमारी छुट्टी होती थी, हम सारा दिन तोते भगाते रहते थे 🙂
आज की पीढ़ी ने स्टीम इंजन चलते नहीं देखा। उसके शोर को नहीं सुना। उसके धुएँ से काले हो जाते आसमान को नहीं देखा। बहुत सी और यादें हैं, और भूले हुए शब्द। अनेक लोहे के औजार बाऊ अपने हाथों से बनाते थे और उस पर ‘टेम्पर’ भी खुद ही देते थे। संडसी, बंसुली, खुरपी, कुदाल, फावड़ा, नहन्न्नी, पेंचकस, कतरनी, गँड़ासी, आरी, रेती ... इनके नाम सुने हैं क्या? या सुने भी हैं तो याद हैं क्या?
धत्त तेरे की , ये सुगंध अब नहीं सधेगी , कमेन्ट बाद में करूंगा , मैं चला , तैयार होकर निकलूं बाज़ार की तरफ , भुट्टे की तलाश में 🙂
तुमने याद दिलाया तो बहुत कुछ याद आया..वो कच्चे कोयले की खुशबू वो भूनते भुट्टे की चिट् पट, वो नीबू नमक का मसाला ….जाने दो क्या करके याद करके …
क्या करेंगे *
पुरानी यादें को,खासकर गाँव में रहते हुए,सोचने पर ऐसा ही अहसास होता है.खाने-पीने,खेलने से लेकर रहन-सहन के कितने तौर-तरीके पता नहीं कब बदल गए,जान ही न पाए !
…कोल्हू के बाहर भट्टी की आग में आलू और शकरकंदी भूजना भूल गई क्या…?
ऊ सब तो सर्दी में होता है जी, बरसात में थोड़े ही 🙂
🙂
रेलवे बाहर से कितना भी सुलगे, अन्दर फिर भी जलना शेष रहता है, बिल्कुल कोयले की तरह..
अच्छा लगा आप आयीं और खुशबू लेकर आयीं
अच्छा तो ये बात!!! भुट्टे यहाँ भुन रहे हैं…मैं सोचूँ की खुशबू कहाँ से आ रही.. 🙂 वैसे आराधना, अभी ऐसे और भी बहुत से नाम हैं, जो तुमने नहीं सुने होंगे 🙂 मतलब हमारे ज़माने के 🙂 🙂 🙂 वैसे बहुत भीना भीना संस्मरण है..मुझे भी बहुत पसंद है बचपन को याद करना.कभी कभी तो लगता है, कि उस तिलिस्म से बाहर ही नहीं आ पा रही मैं 🙂
रश्मि रविजा दी ने कहा है-
अंगीठी…भुट्टा…आँगन ..क्या क्या ना याद दिला दिया…आज के बच्चे ना तो बरामदा जानते हैं ना आँगन…
सचमुच सपनो की दुनिया से ही लगते हैं वे दिन..
बढ़िया…आराधना
अपने-अपने पुराने किससे सुनकर भी अब कुछ बोरियत सी होती है…
पर इस आलेख की minute detailing तुम्हारी मेमोरी और
बुद्धि-प्रतिभा औरउस समय के परिवेश का आलोक हूबहू दर्शनीय रहा…
पढ़ते हुए लगा जैसे कोई क्लासिक कहानी पढ रहा हूँ…या देख
रहा हूँ सत्यजीत रे की कोई फिल्म…पसरे-पसरे परिवेश वाली…
पत्थरिया कोलसा और देशी लकड़ी-कोलसा तो हमने भी देखा है,
अंगीठियाँ भी जलाई है…पर कोलसे का वैसा मौलिक बखान
अभी-अभी ही पढ़ा… उन दिनों कोलसे, स्टीम एनजिन, रेलवे
कोलोनी का अपना ही एक अलायदा स्थान था हमारे मध्यम वर्गीय
समाज में…और भूटटों का तुम्हारे बाऊजी का किचन गार्डेन और
तोते की आवाजाही…तुम्हारे बाऊजी, तुम्हारी अम्मा, और सबकुछ
बारीकी से देखती और मजे लेती नन्हीं आराधना…यहाँ सारी स्मृतियाँ
एक अपनी सी संकूलता लिए दर्ज हुई है…
इतना ही कहूँ, वक्त मिलने पर कुछ न कुछ लिख लिया करो… तुम्हारे
लेखन में कोई बात तो है…
कई शब्द दोहराते लगता है कि ओह , ऐसा भी कोई शब्द होता था , जब अपने साथ ही ये हाल है तो भावी पीढ़ी का क्या कहना …
वैसे मैं भूल ना जाऊं , और बच्चे ये न कहें कि हमें बताया ही नहीं …इसलिए , मिट्टी का चूल्हा , अंगीठी घर में रखती हूँ और कभी कभार काम में भी लेती हूँ !
What a coincident. Recently posted a short post on trains on my blog and had bhutte after such a long time with my daughter.
http://www.duniyan.blogspot.in/2012/07/blog-post.html
बहुत अच्छा लिखा है आराधना. यह बचपन बार – बार लौट कर यादों में आता है और मज़े की बात यह है कि दूर होकर भी यह बहुत पास रहता है. फर्क है तो बस इतना कि हम उस मासूमियत को बहुत पीछे छोड आये हैं, दुनियादार हो गए हैं क्योंकि अब समय की यही दरकार है. मुझे खुशी है कि आजकल मैं अपनी दोहिती के साथ बचपन को पुनः जी पारहा हूँ.
धन्यवाद सर, मेरी पोस्ट पढ़ने के लिए और टिप्पणी करने के लिए.
हमने तो यह सब देखा है और बुरादे की अंगीठी भरी भी खूब है … पर आज की पीढ़ी नहीं जानती यह सब …. नहन्न्नी, यह शब्द नया है मेरे लिए ।
भुट्टों की खूशबू सी महकती प्यारी पोस्ट
नहन्नी नाखून काटने के लिए लोहे से बना तेज महीन तेज धार वाला औजार होता था.
होता था नहीं आराधना, होता है 🙂 अभी भी नापित वर्ग बहुत छोटे बच्चों के नाखून इसी नहन्नी से काटते हैं 🙂
आराधना ,
इस जानकारी के लिए शुक्रिया । सच ही मुझे नहीं पता था । :):)
कभी-कभी खुशी होती है कि हमने तेजी से बदलते युग के उन दिनो की हिस्सेदारी निभाई जो आज की पीढ़ी महसूस ही नहीं कर सकती। हमने गोहरी, कोयला की अंगीठी भी देखी और कम्प्यूटर भी। बहुत कुछ ऐसा भी होगा जो हम नहीं देख पाये होंगे। बहुत कुछ ऐसा भी होगा जो हम नहीं देख पायेंगे। लेकिन यह वह दौर था जो तेजी से बदला और हम खुद भी तेजी से बदलते चले गये।
इस आलेख को पढ़कर खुशी मिली।..धन्यवाद।
ठीक है हिसाब एक तऱह से.. आज की पीढी ने बहुत कुछ अनुभव नही किया है ….पर उन्होंने ऐसा कुछ देखा है जो हमने नही देखा था उस उमरमे … यह तो बदलता रहता है, बदलना चाहिये भी…
कुछ ऐसी ही वातावरण में मैं भी पला बढ़ा हूँ, रहठा और गोबर के उपले के साथ /
🙂
भारत में भुट्टे खाने का संयोग कम ही रहा, वह सारी कसर यहाँ पूरी की। इस साल यहाँ गर्मी काफ़ी पड़ने के कारण हर तरफ़ भुट्टे की फसल कम होने की आशंका जताई जा रही है। वैसे अब तक तो भुट्टों की कमी महसूस नहीं हुई है।
भुट्टे तो हम अभी भी भूनते हैं बार्बेक्यू में लेकिन यहाँ के भुट्टे बहुत नरम होते हैं बहुत हल्की आँच में भी जल जाते हैं। भारत जैसे दमदार भुट्टे नहीं जो चटरपटर बोलकर अच्छे सिंकते हैं। पर कोई बात नहीं इस बार भुट्टों के मौसम में भारत जाएँगे और खाने की जगह भी भुट्टे ही खाएँगे।
सिर्फ ‘स्टीम इंजन’ नहीं देखा शायद , और अगर देखा भी हो तो याद नहीं |
औरैया में पिता जी के पास उस समय साइकिल ही थी , एवन साईकिल , पीछे कैरियर पर मैं आगे डंडे पर भाई , जब कानपुर आते थे तो स्कूटर मिल जाती थी(औरैया छोटी जगह है इसलिए पिता जी कभी स्कूटर औरैया लेकर नहीं गए , वहाँ आज भी वो साइकिल चलाते हैं) प्रिया की स्कूटर , आगे हैंडिल पकड़कर मुझे खडा किया जाता था |
घर में जब भी चूल्हा जलता था मेरे और बाबा के लिए हाथपाई रोटी बनायी जाती थी | उनका स्वाद ही अलग होता था , चूल्हे की वो सोंधी महक और हाथों का प्यार उसे एक अलग ही स्वाद देते थे ,
कानपुर में आधा घर प्लाट है जिसमे पिता जी रामादेवी बाजार से ला-लाकर तरह-तरह के पौधे लगाते रहते हैं | तो संडसी, बंसुली, खुरपी, कुदाल, फावड़ा, नहन्न्नी, पेंचकस, कतरनी, गँड़ासी, आरी, रेती सब देखे हैं और आज भी घर में रखे हैं |
इसी तरह चूल्हे पर दाल बनाने के लिए हांडी-बटूइया का प्रयोग होता था , उसका भी अपना स्वाद था |
सादर