स्मृति-कलश

असमय ही

छलक पड़ता है स्मृति कलश,

गिरती है बूँदें

आरक्त कपोलों पर।

कभी तप्त था जो

तुम्हारे स्पर्श से,

अब तुम्हारी स्मृति से शीतल।

10 विचार “स्मृति-कलश&rdquo पर;

  1. अभिव्यक्ति जैसे कहीं
    कोई अंकूर प्रस्फुटित हुआ…
    ताज़ा-ताज़ा हरा-हरा…
    ‘ज़ख्म’ की भी तरह…

    शैलेन्द्र जी के लिखे प्रश्नवाचक बोल याद आ गए…
    “याद न जाए
    बीते दिनों की
    जा के न आए वो दिन
    दिल क्यों बुलाए उन्हें
    दिल क्यों बुलाए… ?”

  2. कौन वह स्मृति धीर
    जिसके मिस हो मन अधीर
    पुलकित गात मन विश्रांति
    निःसृत अश्रु पंक्ति बह कर देती
    गहन वेदना को क्षणिक प्रशांति ?
    कौन वह स्मृति धीर ??

Leave a reply to देवेन्द्र पाण्डेय जवाब रद्द करें