स्मृति-कलश असमय ही छलक पड़ता है स्मृति कलश, गिरती है बूँदें आरक्त कपोलों पर। कभी तप्त था जो तुम्हारे स्पर्श से, अब तुम्हारी स्मृति से शीतल। 28.635308 77.224960 इसे शेयर करे:TwitterEmailLinkedInFacebookपसंद करें लोड हो रहा है... Related कविता सा कुछ/ poetry
अभिव्यक्ति जैसे कहीं कोई अंकूर प्रस्फुटित हुआ… ताज़ा-ताज़ा हरा-हरा… ‘ज़ख्म’ की भी तरह… शैलेन्द्र जी के लिखे प्रश्नवाचक बोल याद आ गए… “याद न जाए बीते दिनों की जा के न आए वो दिन दिल क्यों बुलाए उन्हें दिल क्यों बुलाए… ?” प्रतिक्रिया
कौन वह स्मृति धीर जिसके मिस हो मन अधीर पुलकित गात मन विश्रांति निःसृत अश्रु पंक्ति बह कर देती गहन वेदना को क्षणिक प्रशांति ? कौन वह स्मृति धीर ?? प्रतिक्रिया
beautiful
अभिव्यक्ति जैसे कहीं
कोई अंकूर प्रस्फुटित हुआ…
ताज़ा-ताज़ा हरा-हरा…
‘ज़ख्म’ की भी तरह…
शैलेन्द्र जी के लिखे प्रश्नवाचक बोल याद आ गए…
“याद न जाए
बीते दिनों की
जा के न आए वो दिन
दिल क्यों बुलाए उन्हें
दिल क्यों बुलाए… ?”
कौन वह स्मृति धीर
जिसके मिस हो मन अधीर
पुलकित गात मन विश्रांति
निःसृत अश्रु पंक्ति बह कर देती
गहन वेदना को क्षणिक प्रशांति ?
कौन वह स्मृति धीर ??
भावपूर्ण !
समय उन्हें स्पर्श ही नहीं करता तभी…स्मृतियां असमय पर भरोसा करती है !
स्मृति अधीर करती हैं, आधार भी बनाती है..
बहुत सुन्दर………..
भावपूर्ण भीगी यादें.
स्मृतियाँ शीतल कर देती हैं मन को …. सुंदर भाव …
स्मृति कलश की बूँदें…
स्पर्श शीतल
स्वाद खारा
ढोता फिरता
मारा मारा
मन हारा।
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना।