बीते हुए दिन… फिर से नॉस्टेल्जिया

नॉस्टेल्जिया बड़ी अजीब सी चीज़ होती है। पता नहीं ये एक मानसिक स्थिति है या मानसिक विकार या बीमारी, लेकिन है अजीब। मुझे लगता है कि कुछ लोग प्रवृत्ति से ही अतीतजीवी होते हैं और ये उनकी बीमारी नहीं होती। या तो शौक होता है या फिर आदत या खुशफहमी कि वो दिन लौटकर आयेंगे, कभी न कभी। ये अलग बात है कि विस्मृति प्रकृति का वरदान है। यदि हमारे अन्दर भूलने की शक्ति न होती, तो हम अपनी ही यादों के बोझ तले घुट-घुटकर दम तोड़ देते या पागल हो जाते। भूलना ज़रूरी है, नई चीज़ें सीखने के लिए, लेकिन स्मृतियाँ भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं होतीं।

कुछ लोगों के लिए यादों का अलग ही मतलब होता है। वे अतीतमोही होते हैं और यादों में ही खुशी ढूँढ़ते रहते हैं। कुछ लोगों को यादें आ-आकर सताती हैं, लेकिन अतीतजीवी लोग तो यादों में ही चले जाते हैं। उनकी ज़िंदगी में अतीत घुस जाता है, वे अतीत में ही रहना पसंद करते हैं। ये सब उलट-पुलट तब चलती है, जब आप खाली बैठे हों और उससे भी अधिक तब, जब आप बेहद उदास अकेले लेटे हों अपने कमरे में और आपके पास परिवार के नाम पर एक कुत्ते के सिवा कोई भी पास न हो…यूँ तो बहुत लोग साथ होने का दावा करते हैं। और जबकि आपका अतीत, वर्तमान से कहीं अधिक हरा-भरा, चहल-पहल वाला और सुनहरा हो। तब यादें बहुत कीमती लगती हैं और आप अक्सर किसी अपने की याद में डूबे रहना चाहते हैं।

दो-तीन दिन से मुझे भी किसी की बहुत याद आ रही है। अम्मा-बाऊ की याद तो साथ रहती ही है, लेकिन इस मौसम में बसंत चाचा की बहुत याद आती है। बसंत पंचमी को उनका जन्मदिन होता है, जैसे बाऊ का कृष्ण जन्माष्टमी को। बाऊ के दोस्त थे बसंत चाचा। हालांकि बाऊ से सात-आठ साल छोटे होने के कारण उनको दद्दू कहते थे, लेकिन दोस्ती बराबर की थी। अम्मा को अपनी माँ मानते थे और अक्सर बाऊ की शिकायत अम्मा से करके बाऊ को डँटवाया करते थे। उनकी बदमाशियों के बारे में मैंने एक पोस्ट भी लिखी थी।

हमलोगों के लिए वो किसी भी तरह अम्मा-बाऊ से कम नहीं थे। जब हम भाई-बहनों से सम्बन्धित किसी निर्णय में अम्मा-बाऊ का एक-एक वोट होता, तो हम चाचा का इंतज़ार करते और अक्सर उनका वोट हमारे पक्ष में होता। मुझे याद है, जब हमारा स्कूल टेबल टेनिस की जिला प्रतियोगिता में जीता था। मैं टी.टी. टीम की मुख्य खिलाड़ी थी और मुझे डिस्ट्रिक्ट की ओर से मंडलीय प्रतियोगिता में लखनऊ जाना था। मैं पहली बार मंडलीय प्रतियोगिता में भाग लेने की कल्पना मात्र से बहुत उत्साहित और प्रसन्न थी। फॉर्म पर अभिभावक के हस्ताक्षर चाहिए थे। अम्मा मुझे बाहर भेजने के पक्ष में बिल्कुल नहीं थी। उनके अनुसार एक तेरह साल की लड़की को बिना माँ-बाप के कहीं नहीं जाना चाहिए। बाऊ की हाँ थी, लेकिन वो अम्मा के खिलाफ कभी नहीं जाते थे। उन्हें लगता था कि अम्मा उनसे ज्यादा समझती हैं, घर-परिवार के बारे में। मैं भी एक नंबर की ज़िद्दी। मेरा रोना-धोना चालू था कि दीदी ने इशारा किया चाचा को बुलाने का। मैं झट से स्टेशन गयी और रेलवे के फोन से चाचा को सन्देश भिजवा दिया। उन दिनों छोटे शहरों में घरों में फोन नहीं हुआ करते थे। रेलवे वाले स्टेशन के फोन से काम चला लिया करते थे। चाचा बगल के स्टेशन गंगाघाट में पोस्टेड थे और सन्देश मिलते ही ड्यूटी खत्म करके अगली गाड़ी से मगरवारा आ गए। उन्होंने अम्मा को बहुत समझाया कि ‘बिटिया अकेली नहीं होगी, तीन टीचर्स साथ जा रही हैं और दो चपरासी। फिर साथ में और लड़कियाँ भी तो होंगी।’ चाचा के आने से दीदी को भी साहस हुआ मेरी ओर से बोलने का और मुझे लखनऊ जाने की अनुमति मिल गयी।

ऐसे और ना जाने कितने ही किस्से हैं। जब उन्होंने अपना वोट हमलोगों के पक्ष में देकर हमारा हौसला बढ़ाया था। बाऊ के रिटायरमेंट के बाद हमलोग उन्हीं के क्वार्टर में एक साथ रहे। उनके तीन बेटे थे, जिनमें से एक गाँव में रहते थे और दो चाचा के साथ। चाचा के घर में बिताए दिन हमलोगों के लिए यादगार हैं। वैसे तो भईया लोगों का बचपन से हमारे घर में  आना-जाना लगा ही रहता था, लेकिन साथ रहने का अलग ही मज़ा था। पूरे घर में चार लड़के- दो चाचा के, एक हमारा भाई और एक हमारे चचेरे भाई, दो लड़कियाँ- मैं और दीदी और दो बाप- बाऊ और चाचा और माँ एक भी नहीं। पूरा हॉस्टल के जैसा माहौल होता था। भैय्या के दोस्त, दीदी के दोस्त और मेरी सहेलियाँ- दिन में कोई न कोई जमा ही रहता था। खूब पढ़ते थे। खूब टी.वी. देखते थे और ग्यारह बजे रात तक गप्पें भी मारते थे।

सबसे बड़ी बात, जो उस घर में थी वो ये थी कि दोनों बुजुर्गों को छोड़कर काम करने की ज़िम्मेदारी सभी पर बराबर थी। बुजुर्ग लोग बेचारे रात-दिन की ड्यूटी से ही हलकान रहते थे। मैं सफाई करती, दीदी खाने में सब्ज़ी बनातीं, तो भईया लोग बर्तन धोते और आटा गूँथते और रोटी सिंकवाते। एक दिन मेरे कज़िन और चाचा के मझले बेटे राजन भैया शायद आपस में बातें कर रहे थे या मैच देख रहे थे, याद नहीं, लेकिन दीदी बर्तन धो रही थीं। अचानक चाचा ड्यूटी से वापस घर आये। बिटिया को झौव्वा भर बर्तन माँजते देख आग-बबूला हो गए। भैय्या लोगों से बोले, “मुस्टंडों, तुम हट्टे-कट्टे बइठ के गप्पें मारि रह्यो और हमार बिटिया अकेले बर्तन मांज रही है। यही मारे तुम पंचन क खवा-पिया के इत्ता बड़ा कीन्हेंन  है।” भइय्या लोगन की तो सिट्टी-पिट्टी गुम। हडबड़ाकर उठे और “अरे दीदी बताईन ही नहीं” कहते हुए, दीदी को उठाकर झट से बर्तन धोने में जुट गए।

तो ऐसे थे हमारे बसंत चाचा। अभी अच्छी-अच्छी बातें लिख लीं, तो आगे लिखने का मन नहीं हो रहा है। आगे सारी दुःख भरी बातें हैं। हमारे उन्नाव छोड़कर आजमगढ़ अपने गाँव शिफ्ट होने की। इस बात से चाचा के डिप्रेशन में जाने की और फिर हमसे सदा के लिए बिछड़ जाने की। मुझसे नहीं कही जायेंगी वो बातें अभी। 2003 में चाचा भी हमें छोड़कर चले गए। उन्हें माउथ कैंसर हो गया था। इस गर्मी में उन्हें गए दस साल हो जायेंगे।

और अंत में ‘देवर’ फिल्म का ये गीत, जो मुझे उन दिनों की याद दिलाता है। रुलाता है, तड़पाता है, बेचैन करता है,  फिर भी बार-बार सुनती हूँ। कहा ना, किसी-किसी को अतीत में जीने की आदत होती है।

17 विचार “बीते हुए दिन… फिर से नॉस्टेल्जिया&rdquo पर;

  1. ….मुझे भी अतीत में जीने की बीमारी है !
    .
    .
    .बीता हुआ दुख भी आनंद देता है,इसलिए वर्तमान के साक्षात्कार और भविष्य के चिन्तन की अपेक्षा वही सुखद है ।

  2. ज्यादातर लोग अपना बीता हुआ कल याद रखना चाहते हैं , कोई अच्छे के लिए कोई बुरे के लिए भी और कुछ खास बातें तो भुलाये नहीं भूलती |
    अब देखिये , आपने मगरवारा और गंगाघाट का नाम लेकर हमको भी वहीँ , कल में भेज दिया | 🙂

    सादर

  3. अतीत में जाना बीमारी नहीं बीमारियों का इलाज है.. जब ढेर दुःख भरी बातें सोचते हैं तो संतोष होता है कि जब वो वक़्त गुज़र गया तो कोई भी दुःख शाश्वत नहीं होगा…

    वैसे गाना सुन के तो हम भी रो हि लिये ज़रा सा…मगर फिर धर्मेन्द्र इत्ते डैशिंग लग रहे हैं कि भाड में जायें सारे ग़म.. 😛
    इश्माइल पिलीज़ गुईंयां.. 🙂 🙂 🙂

  4. मन बस यही तो चाहता है कि अच्छी बातें याद रहें, कष्टकर घटनायें भूल जायें। अपनों की अपनी बातें रुचिकर लगती हैं..मन बस उन्हीं से ऐसे ही भरा रहे।

  5. कहीं नेपोलियन के बारे में पढ़ा था. वह जब जो चाहता था उसे भूल जाता था और जब जिस बात को याद करना चाहता था तब उसे याद आ जाती थी. जैसे हम कोई सामा किसी मेज के दराज में रख देते हैं और जब जरुरत होती है तब निकाल लेते हैं. उसकी एक और खूबी थी, जब चाहता था तब उसे नींद भी आ जाती थी. अगर यह वाकई सच है तो मुझे उससे घोर इर्ष्या है.

  6. यादें शक्ति देती हैं,प्रेरणा भी और हौसला भी. तो यादों में रहना बुरा नहीं. खुशनुमा यादें संजोय रहो. गम को गोली मारो और कह दो – जो बीत गई जो बात गई. जानती हूँ कहना आसान है, करना मुश्किल. पर चलो धर्मेन्द्र की ही खातिर :).स्माइल प्लीज़ :).

  7. यादें अच्छी हैं तो उनसे प्रेरणा ली जानी चाहियें, दुखदाई हैं तो उठकर किसी काम में लग जाना चाहिये चाहे ’रस्सा कूदना’ ही सही।
    पक्की बात है आज भी चाचा को ’हिचकी’ आ रही होगी।

  8. इतना मजा आ रहा था संस्मरण पढने में,कैसा निश्छल प्रेम होता था तब. अपने-पराये का भेद ही नहीं होता था
    पर अंतिम पैरा ने सच में दुखी कर दिय.
    सब दिन समान नहीं रहते शायद तभी उन बीते दिनों का महत्व पता चलता है.
    अब गाना हम भी सुन ही लेते हैं ,शायद मूड ठीक कर दे ,ये गीत .

    1. हाय…धर्मेन्द्र डैशिंग तो लग रहे हैं पर कित्ते उदास दिख रहे हैं
      उनका इतना उदास चेहरा तो और उदास कर गया 😦
      और शर्मीला टैगोर मुस्कुराए जा रही हैं .
      अब तो ये फिल्म देखनी पड़ेगी

Leave a reply to akash जवाब रद्द करें