नारीवादी स्त्री प्रेम नहीं करती?

फेसबुक बड़ी मज़ेदार जगह है. यहाँ गंभीर विमर्श के लिए भले ही अपेक्षित स्थान न हो, लेकिन उसके लिए सामग्री अवश्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।  यह पोस्ट फेसबुक पर मेरे एक स्टेटस और उस पर आये एक कमेन्ट से सम्बन्धित है।

परसों मैंने एक बात लिखी प्रेम और आकर्षण के बारे में- “कभी-कभी प्रेम और आकर्षण में अंतर कर पाना बहुत कठिन होता है। समय बीतने के साथ इनका अंतर पता चलता है। आकर्षण, एक निश्चित समयावधि के बाद घटता जाता है और प्रेम…समय के साथ धीरे-धीरे बढ़ता जाता है।” इस स्टेटस पर कमेन्ट करते हुए एक फेसबुक मित्र सुनील जी ने कहा ‘औरत मर्द से दूर इंसानियत की भाषा में बात करने के लिए धन्यवाद!’ उन्होंने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि मैं अक्सर औरतों से जुड़े मुद्दे उठाती रहती हूँ और नारीवादी के रूप में जानी जाती हूँ। और लोगों को ये भ्रम होता है कि नारीवादी स्त्रियाँ पुरुषों से नफ़रत करती हैं, इसलिए प्रेम के बारे में सोचती ही नहीं हैं, प्रेम करना तो दूर की बात। कल रात में सोते समय इस बात की याद आ गयी। और अचानक से बहुत से विचार उमड़-घुमड़ मचाने लगे।

मैंने सोचा कि कि नारीवादी या आधुनिक खुले विचारों वाली औरतों को लोग प्रेम विरोधी क्यों समझ लेते हैं? उनके मन में प्रेम का कैसा स्वरूप होता है, जिसे सिर्फ परम्परागत ढंग से सोचने वाली स्त्रियों के साथ ही जोड़ा जा सकता है, आधुनिक स्त्रियों के साथ नहीं? शायद वो ये सोचते हैं कि चूँकि आधुनिक औरतें किसी तरह की गुलामी बर्दाश्त नहीं करतीं, इसीलिये उन्हें प्रेम में बंधना भी पसंद नहीं। जबकि उनका ये सोचना सिरे से गलत है।

इस विषय में सोचते-सोचते मुझे ‘स्त्री मुक्ति संगठन’ की साथी पद्मा दी का एक वक्तव्य याद आया कि ‘प्रेम, दो स्वतन्त्र व्यक्तित्व वालों में ही संभव है।’ दो ऐसे लोग, जो एक-दूसरे पर किसी मजबूरी के तहत निर्भर न हों। यहाँ यह बात समझनी चाहिए कि प्रेम में जो अंतर्निर्भरता होती है, वह मजबूरन थोपी गयी नहीं होती। वह स्वतः उपजती है और उसका कारण प्रेम के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता।

इसी प्रसंग में बहुत पहले एम.ए. की कक्षा में हमारी काव्यशास्त्र की प्राध्यापिका का एक व्याख्यान याद आया, जिसमें उन्होंने रामायण की रचना के विषय में लोकख्यात श्लोक का उद्धरण दिया था। वह श्लोक है-

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम् ।।

(हे निषाद, तुम अनंत वर्षों तक प्रतिष्ठा प्राप्त न कर सको, क्योंकि तुमने क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से कामभावना से ग्रस्त एक का वध कर डाला है।)

इस श्लोक और इससे जुड़ी किंवदंती के विषय में प्रायः सभी सुधीजन जानते होंगे। महर्षि वाल्मीकि वन में भ्रमण कर रहे होते हैं कि उनकी दृष्टि रतिक्रिया में लिप्त क्रौंच पक्षी के जोड़े पर पड़ती है। अगले ही पल उनमें से एक बहेलिये के तीर से घायल होकर भूमि पर गिरकर मर जाता है। दूसरा पक्षी बेचैन होकर इस डाल से उस डाल घूम-घूमकर चीत्कार करने लगता है। यह ह्रदयविदारक दृश्य देखकर ही शोकाकुल महर्षि वाल्मीकि के मुख से उक्त श्लोक निकल पड़ता है। इस श्लोक को काव्य का प्रारम्भिक श्लोक माना जाता है। इसके पहले भी बहुत कुछ लिखा जा चुका था, लेकिन किसी दूसरे की भावनाओं को स्वयं अनुभूत कर स्वतः फूट पड़े ये शब्द ही कविता माने गए। संस्कृत काव्यशास्त्र के अनुसार ‘रसमय वाक्य ही काव्य है।’ और दूसरों के भावों को कविता पढ़ते समय स्वयं अनुभव करना ही रस है।

अब प्रश्न यह कि मैंने यह प्रसंग यहाँ क्यों प्रस्तुत किया? बात ये है कि यह तो सभी लोग जानते हैं कि क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक की मृत्यु पर दूसरे के शोक से यह श्लोक फूटा. पर ये किसी को नहीं मालूम कि मरने वाला पक्षी नर था या मादा थी। हमारी प्राध्यापिका यही बात समझा रही थीं कि प्रायः लोग मानते हैं कि मरने वाला नर था, लेकिन उनके अनुसार मादा थी। वो इसलिए कि नर की मृत्यु पर मादा के विलाप में विरह की वह पीड़ा नहीं होगी, जो  नर के विलाप में होगी। उन्होंने इसे सीधे स्त्री-पुरुष के प्रेम से जोड़ा। उनके अनुसार एक स्त्री भी अपने पति को उतना ही प्रेम करती है, जितना कि पुरुष, लेकिन अपने पति या प्रेमी की मृत्यु पर उसके शोक में प्रेम के बिछड़ने के साथ ही साथ और भी बहुत सी आशंकाएँ होती हैं। वो यह सोचती है कि अब इतने बड़े संसार में वह अकेली कैसे रहेगी? उसके बच्चों का और उसका पालन-पोषण कैसे होगा? अब उसे शेष जीवन वैधव्य में बिताना पड़ेगा आदि-आदि।

इसके विपरीत यदि किसी पुरुष की प्रेमिका या पत्नी की मृत्यु होती है, तो उसके विरह में ‘सिर्फ प्रेम’ होगा और कोई भावना नहीं क्योंकि वह आर्थिक या सामाजिक रूप से प्रेमिका या पत्नी पर आश्रित नहीं होता। वह सिर्फ अपनी पत्नी के विरह में व्याकुल होगा। विरह की तीव्र अनुभूति जितनी यहाँ होगी, उतनी वहाँ नहीं. यहाँ यह भी स्पष्ट है कि यहाँ ‘विरह’ की बात हो रही है ‘शोक’ की नहीं। पत्नी का दुःख ‘शोक’ होगा क्योंकि उसमें प्रेम के अतिरिक्त अन्य भाव सम्मिलित होंगे, लेकिन पति का दुःख ‘विरह’ होगा।

आपको ये स्थापना बेतुकी लग सकती है। कुछ-कुछ मुझे भी लगती है। लेकिन जब इसे हम ऊपर पद्मा दी की बात से और हमारे मौजूदा सामाजिक ढाँचे से जोड़कर देखते हैं, तो बात को समझने का नया आयाम मिलता है। हमारे समाज में लड़कियों  को ‘आत्मनिर्भर’ नहीं बनाया जाता। मैंने दिल्ली में ऐसी लड़कियों से बात की है, जो ब्वॉयफ्रेंड, प्रेमी या पति चाहती हैं, तो अच्छी जॉब और अच्छे-खासे बैंक-बैलेंस वाला, जिससे वह उनके सारे खर्चे उठा सके। साथ ही इतना लंबा-तगड़ा भी कि उनकी रक्षा कर सके और मज़े की बात ये कि उन्हें अपनी इस सोच के लिए कोई ‘गिल्ट’ भी नहीं होता। ऐसा लगता है कि उन्हें पति या प्रेमी नहीं, ए.टी.एम. या चौकीदार चाहिए। ये बात अलग है कि सारी लड़कियाँ ऐसा नहीं सोचतीं, लेकिन अधिकांश लड़कियों की सोच ऐसी ही है।

लेकिन इसमें लड़कियों की कोई गलती नहीं है. गलती उनके पालन-पोषण के ढंग में है, समाज की मानसिकता में है। क्यों नहीं हम अपनी लड़कियों को इतना आत्मनिर्भर बनाते कि वह अपना खर्च खुद उठा सकें, अपनी रक्षा खुद कर सकें। क्यों उन्हें ये सारी अपेक्षाएँ अपने प्रेमी या पति से करनी पड़ें?

बस यहीं पर मैं अपने मूल विषय पर आ जाती हूँ. एक आज़ाद या जिसे आप नारीवादी कहते हैं, वह औरत यदि किसी से प्रेम करती है तो सिर्फ इसलिए कि वह उसे अच्छा लगता है, उसके साथ समय बिताना अच्छा लगता है, …न कि इस कारण कि वह खर्चे उठा रहा है या सहारा और सुरक्षा दे रहा है। ठीक यहीं पर पद्मा दी की कही हुयी ये बात सटीक बैठती है कि प्रेम दो स्वतन्त्र व्यक्तित्वों में ही संभव है। एक-दूसरे पर निर्भरता यहाँ भी होती है, लेकिन किसी मजबूरी या एहसान के कारण नहीं, प्रेम के कारण।

29 विचार “नारीवादी स्त्री प्रेम नहीं करती?&rdquo पर;

  1. आपके मूल विषय से कहीं अधिक अर्थपूर्ण और आँखें खोलने वाले बातें वे हैं, जिन्हें आपने भूमिका के तौर पर लिखा है … उन पर चर्चा बाद में, क्योंकि वे अधिक गहराई में जाने की मांग करती हैं … जहां तक आज़ाद ख़याल औरतों ( नारीवादी कहना ठीक नहीं, क्योंकि कोई भी वाद सबसे पहले दायरा बनाता है) के प्रेम कर सकने पर सवाल उठाने की बात है तो ऐसा वे नादान ही करेंगे, जो प्रेम को बंधन समझते हैं … वस्तुत: प्रेम स्त्री – पुरुष, दोनों को समृद्ध करता है – मुक्त करता है …

  2. बहुत कुछ गड्ड मड्ड हो जाता है प्रेम वेम को परिभाषित करते समय। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो ये दिमागी फितूर से ज़्यादा कुछ नहीं। अच्छा लगा पढ़ कर … दुबारा आता हूँ

  3. मुझे तो लगता है बहुत सी नारीवादी महिलाएँ और खासकर लड़कियाँ ये दिखाने की कोशिश करती हैं कि वे प्रेम व्रेम से दूर रहती हैं,आम महिलाओं में और उनमें फर्क है वे उनकी तरह भावुक नहीं।उन्हें लगता है प्रेम के बारे में बात करने से पुरुष उन्हें कमजोर समझ लेंगे ।ऐसे ही बहुत से पुरुष भी ये दिखाते रहते हैं कि प्रेम करना पागलों का काम है,उनमें और बाकी पुरुषों में अंतर है।जबकि ऐसा है नहीं।

  4. प्रेम ………..और स्त्री , सच में आराधना जी “प्रेम और स्त्री ” के संबंध में और भी समझना चाहता हूँ, क्योकि मेरे खुद व्यक्तिगत अनुभव भी यही कहते हे की स्त्री प्रेम के रिश्ते में भी अपनी बात स्वतंत्रता से नहीं रख पाती, कुछ सकुचन तब भी बांकी रह जाती हे, बह क्यों …जानना चाहता हूँ!!!!

  5. प्रेम को नारीवादी व पुरूषवादियों के बीच उलझाना तर्कसंगत नही है,
    प्रेम निसंदेह वैचारिक भावों पर तो निर्भर करता है, परन्‍तु हम इसे
    अगडे व पिछडे, अमीर या गरीब तथा आधुनिक या पुरातन के वर्गो में
    विभक्‍त नहीं कर सकते ।

  6. एकदम सही बात कही है तुमने अराधना .
    हालाँकि यह धारणा कि नारीवादी स्त्रियाँ प्रेम नहीं कर सकतीं क्योंकि वे पुरुष जाति से ही नफरत करती हैं – भी हमारे ही समाज की उपज है , जहाँ वाकई कुछ स्त्रीवादी हर समस्या के लिए पुरुष समाज को गरिया देते हैं :).
    यहाँ राजन की टिप्पणी भी काफी ठीक लगाती है.

  7. Hamare (Dono Jaatiyon ka) Antarman ka Swarup hi Prem par tika hua hai. Ham prem ke bina sukhad anubhoot kar hi nahi sakte. Baaki sab charchaayen-paricharchaayen nirantar badalte samaaj kee upaj hai.
    Ek aur baat is prithvi par bahut se aise desh aur kabile hain jahan Maatri-sattatmak samaaj chal raha hai parantu ve bhi prem kee talaash me rahte hain… Aur vivaav sutra me bandhne se pahle Prem hi chahte hain, kyun baaki sab to adjustable hai.

  8. कोई प्रेम करता हैं या नहीं करता इसका फैसला कोई दूसरा कैसे कर सकता हैं
    प्रेम क्या प्रदर्शन की वस्तु हैं ??
    और नारीवादी महज एक टैग हैं उनके लिये जो नारी अधिकारों के प्रति सचेत हैं और दुसरो को भी करते हैं
    नारीवादी पुरुष को परमेश्वर नहीं मानते हैं और मानते हैं की स्त्री और पुरुष समान हैं
    वो पुरुष विरोधी होते ही नहीं हैं क्युकी उनकी नज़र में पुरुष “शासन ” , शासक का प्रतीक नहीं होता .

  9. waah ……….Badhyi Aradhna G, bahut achha lekh ,sarthak aur Gambhir…Beshak PYAAR sirf pyaar nahi aur bhi bahut kuchh isme andekha GUNTHA hota hai. aurat/mard ke alag PAIMAANO ke saath PREM SRISTI ka SRIJAK hota hai aisa log mante hain…..magar MARDWADI SATTA me PARWARISH paayi AURAT ke liye ATM/PAHALWAAN/ CHAUKIDAAR zyada upyukt lafz hai, 🙂
    “BACHPAN me PITA ka GHAR, JAWANI me PATI ka GHAR, BUDHAPE me BETE ka GHAR hi aurat ki UCHIT JAGAH hai” me pali MAAYEN aur kya dengi apni BETIYON ko…..aur BAAP use to SAWAL uthane wali BETI uski SATTA ko CHUNAUTI deti huyi BAGI/DHUSHMAN nazar aati hai…..so AZAAD KHAYAL/ AHAMASMI LADKIYAAN/AURTEN PURUSHPRADHAN samaj ki BAAGI SENA hi KAHAYI JAYENGI……! Baqaul MARD “”WO PYAAR KAISE KAR SAKTI HAI?????

  10. प्रेम जैसी सुकोमल भावना , हर स्त्री के मन में जन्म ले सकती है, चाहे वो गाँव की भोली भाली बाला हो या शहर की पढ़ी-लिखी, अपने अधिकारों के प्रति सचेत कोई लड़की.
    फर्क शायद ये होता है कि नारीवादी स्त्री प्रेम तो कर सकती है पर पूजा नहीं.
    और ऐसा कहने वाले कि नारीवादी स्त्री प्रेम नहीं करती, प्रेम को पूजा समझते हैं, कि वो अपने प्रेमी की हर गलती को नज़रंदाज़ कर दे और अपने सभी अधिकारों का त्याग कर दे, तभी वे समझेंगे कि वो प्रेम में है.

  11. aapke vichar padkar essa laga jaise mere niji vicharo ko kisi ne manyata de di ho…. dhanyawad… main is vishaye ko ek saarv-bhaumik istar par samajhne ka pryas karta raha hoon hoon or jaha tak mujhe samajh main aata hai… prem ke samast sansarik swaroop paraspar nirbharta ka hi parinaam hai…. ham apne mata pita se prem karte hai… kyoki jeewan ke ek bade suruaati kaalkhand main hamari aarthik or samajik nirbharta hoti hai….. ham apne offspring se prem karte hai kyoki hamare jivan ko (DNA) ko anant kal tak astitva main banaye rakhne main hamari un par nirbharta hoti hai…. atha mata pita evam bachcho ke beech ek nirbharta (prem) ka nirman hota hai…. or yahi aadhar estri-purush sambandho ka bhi hai… jaivik star par ham sabhi apani uttar jivita ko sunischit karne ke liye paraspar ek doosare par nirbhar hote hai…. manav samaj ke sandarbh main dekhe to samajik star par bhi paraspar nirbharta ka samikaran ka udvikas hua hai…. jaha suraksha evam dhanarjan ke vishaye purush ke hisse main aaye ( sharisik kshamata or gabhdharan se mukt hone ke karan)… ateet main tah ek swabhabik chunav tha….
    jis paryavaran main hamari prajati ka vikas hua hai waha samvidhan,rastra,saman kanoon or vyakti ke niji adhikar jaisi avdharna nahi thi….. shakti hi ekmatra nirnayak aadhar tha… atha us ardh-viksit samajik paryavaran main suraksha ke vibhag ko atyadhilk mahattva diya gaya…. or swat: hi paraspar nirbharta, istri ki purush par nirbharta ke roop main dekhi jane lagi…. main yaha ek udaharan dena chahooga… pakistan jaise rastro main jaha asuraksha ki bhavna ati praval hai… sena evam ISI (surakha se jude ) ke prati ek andha samarpan ka bhav paya jata hai…. wahi vikasit rastro main suraksha agencies civil government ke adheen rahati hai…. yaha ek swabhavik prakriya hai…. jaise jaise hamare rastra main vyavasta ka vikas hoga or vyakti ki suraksha ki jimmedari rastriya vyavasta apne upar leti jayegi, istriyon ki aarthik aatmanirbharta badati jayegi… yah ektarfa nirbharta paraspar nirbharta ke roop main swayam ko punarsantulit kar legi…. aapke vichar or ese hi hi anek istrivadiyo ke vichar jo bade hi samsamyik hai… isi krantik awastha ka parinam hai… badali hui paristhitiyo ke aadhar par samaj swayam ko reshape kar raha hai…
    ab jaha tak sansarik prem ki baat hai… wah to nirbharta par hi viksit hota hai…. haan yah nirbharta parspar hoti hai….. samasya nirbharta main nahi hai…. smasya is santulan ke kisi ek paksh main jhuk jane par aati hai…. itihas main yah purush ke paksh main atyadhik juki rahi hai jo abhi bhi santulit nahi ho saki hai…..prakiya chal rahi hai…. or isme samaye lagega…. kuch tatha-kathit strivadiyo (main yaha samanyikaran nahi kar raha) ke manas per vartman asantulan ke prati itna jyada vidroh hai.. ki wo anayas hi ise santulan main lane ke bajaye ek pratishod ke roop main doosare prakar ka asantulan sthapit karne ke paksh dhar bhi najar aate hai…. isse bachne ki jaroorat hai…. magar esa varg sankya main bahut chota hai… adhiktar strivadi is samasya ko theek se samajhte hai…. ateet ko lekar kisi bhi prakar ki shikayat karne se bachna hona…. parivartan aavasyak hai…. par ateet main atyachar hua hai…. ye bhav….digbramit kar sakta hai…. ek or udaharan dena chahuga…. gandhiji ne angrejo ko kabhi bhi kisi danav ki tarak portrey nahi kiya…. or aaj hum angrejo ke prati bina kisi kuntha ke apne marg par aage bad rahe hai or samanya tor par safal bhi hai…. wahi doosari taraf pakistan ka nirman hinduo ko villain ki tarah portrey karne se hua…. or wo prakriya 63 saal baad bhi waha chal rahi hai…. or poora ka poora desh itihas ki ulatvashi karne main vyast hai…. grina ka bhav swabhavik hai…. yaha per ghandhiji ki ek or baat hame apane vicharo ko samyak rakhne main sahayak ho sakti hai- (meri ladai agrezo se nahi hai balki samrajyavad ke vichar se hai) …. saar roop main ek baat jisse main aapse asahmat hoon wah hai ki prem main nirbharta nahi hoti…. pren ka aadhar nirbharta hi hai… magar ek santulit paraspar nirbharta…. na ki ek ki doosare par nirbharta….. agr aapne ise poora pada hai to dhanyawa… 🙂

    1. इतनी लंबी और संतुलित टिप्पणी के लिए धन्यवाद! मैंने टिप्पणी पूरी पढ़ी, हालांकि रोमन में लिखे होने के कारण थोड़ी परेशानी हुयी पढ़ने में 🙂
      प्रेम में निर्भरता नहीं, अंतर्निर्भरता होती है, मैं भी यही मानती हूँ. लेकिन यह मजबूरीवश नहीं, बल्कि सिर्फ प्रेम के कारण होनी चाहिए.

    1. सरासर गलत है यह सोच कि नारीवादी महिलाएं प्रेम नहीं करती …. प्रेम में कोई वाद नहीं होता। मैं नारीवादी भी हूं और मैंने टूटकर प्यार भी किया है। 6 सालों तक अपने प्रेम का इं‍तजार किया है और महिलाओं के लिए लगातार 15 वर्षों से लिख रही हूं। मैं आज अपने प्यार के साथ खुश हूं और महिला उत्पीड़न पर लगातार लिख रही हूं… लिखती रहूंगी,प्यार किया है करती रहूंगी… महिलाओं पर अत्याचार होगा तो कौन महिला चुपचाप रहेगी भला??? और जो चुप नहीं रहेगी वह नारीवादी और जो बोलने का अवसर नहीं प्राप्त कर सकी वह नारीवादी नहीं….?????

  12. नारीवाद पुरुष प्रधान ‘व्यवस्था’ की आलोचना है न कि पुरुषों की आलोचना। नारीवाद के अंतर्गत स्त्रियों के बेहतर जीवन के लिए स्त्रियों व्यक्तिगत स्वतंत्रता और पुरुषों के साथ समानता की बात की जाती है। नारीवाद स्त्री के अनछुए, अनजानी पीड़ा से दुनिया को अवगत करता है, स्त्री के दोयम दर्जे को दिखाता है, लड़के और लड़की के लालन पालन में जो विषमता है वो दिखाता है।

    पहले स्त्री केन्द्रित चिंतन और आज के नारीवाद में बुनियादी फर्क यह है कि पहले स्त्री-पुरुष में जो सामजिक अंतर था उसे प्राकृतिक अर्थात शारीरिक अंतर माना जाता था, इसलिए जो सबल था वो निर्बल को आश्रय देता था, देख-भाल करता था और उसपर अपना अधिकार समझता था। अब बात बदल गयी है, अब आपत्ति differences से नहीं है आपत्ति inequality से है। अब नारीवाद का अर्थ है सामजिक स्वतंत्रता और समानता का अधिकार। नारी को उतनी ही स्वतंत्रता चाहिए, जितनी पुरुष को है और उतनी ही समानता का अधिकार भी चाहिए जितना पुरुष को है।

    अब वापिस आते हैं, आराधना की बात पर, जिस तरह की स्वतंत्रता, अधिकार और समानता पुरुष के पास है क्या उनके होने से पुरुष, पुरुषवादी कहलाता है? अगर नहीं कहलाता है तो इस हिसाब से कहलाना चाहिए। जब अपने उसी स्वतंत्रता, अधिकार और समानता के साथ पुरुष प्रेम कर सकता है, तो तथाकथित ‘नारीवादी’ क्यों नहीं कर सकती। अपने लिए अधिकार, स्वतंत्रता और समानता लेना और प्रेम, प्यार, इश्क आप जो भी कह लीजिये, करना बिलकुल दो अलग बातें हैं। प्यार एक मानवीय गुण है, नारीवादी हों या पुरुषवादी वो मनुष्य पहले हैं, इसलिए नारीवादी भी प्रेम करती है। मैं ये तो नहीं कह सकती कि नारीवादी स्त्री सोच समझ कर ही प्रेम करती है, क्योंकि सुना है प्रेम किया नहीं जाता हो जाता है 🙂
    हाँ अगर सोच-समझ कर करती हैं जो ज़रूर ऐसे इंसान से वो नहीं करेंगी जो स्त्री को अपना गुलाम समझे, उसी पुरुष से करेंगी जो उसे अपने समतुल्य समझता हो। लेकिन ये पक्की बात है, अपनी स्वतंत्रता, अधिकार और समानता के प्रति सजग और आवाज़ उठाने वाली नारी जिसे आप ‘नारीवादी’ कहते हैं, उसे पुरुषों से नफरत नहीं होती और वो भी प्रेम करती है।

  13. आराधना जी मुझे तो कभी ये समझ ही नहीं आया की प्रेम किस चिड़िया का नाम है और ये किस डाल पर बैठती है। मैंने कहीं पढ़ा था की प्रेम वो भावना है जिसमे हम किसी पर बिना कुछ चाहे अपना सब कुछ न्योछावर कर देते हैं। प्रेम की इस परिभाषा के उसके अनुसार तो सच्चा प्रेम कहीं हो ही नहीं सकता वो चाहे स्वतंत्र व्यक्तित्व हो या कुछ और।

  14. नारीवाद और प्रेम दो अलग विषय है.नारीवाद को जब तक पुरुषों की खिलाफत के रुप मॆं देखा जायेगा सब कुछ संदेहास्पद दृष्टि से देखा जाता रहेगा.प्रेम जब भी लिंग, वर्ण, आकर-प्रकार, अर्थ,सामर्थ्य से जोड़ा जायेगा वो एक तातक्षणिक अभिव्यक्ति मातृ बन कर रह जायेगा.प्रेम परिभाषित करने योग्य अनुभूति है ही नही…इसीलिये मीरा,राधा,कृष्ण,हनुमान,सबका प्रेम अलग अलग होते हुए भी प्रेम है जो भक्ति बनकर अनंत भाव बन जाता है.नारीवाद एक विचारधारा है प्रेम एक अनुभूति.अनुभूति सहज ही प्रकट होती है.जो कारण, फल और अभीष्ट देख् कर किया जाए वो व्यवहार कहलाता है जिसे हम तत्व्हीन प्रेम कि संज्ञा दे सकते है.आपकी शिक्षिका का क्रौंच पक्षी का उदाहरण अच्छा है पर प्रेममय आत्मा लिंग पर आधारित नही होती. जो भी जीवित था उसे विछोह का विरह होना अनिवार्य था……..एक सुंदर लेख

  15. अति उत्तम….. एक बहुत ही सारगर्भित लेखन, जो पड़ते हुए ना केवल सोचने को विवश करता है अपितु स्त्री- पुरुष सम्बन्धो की सुंदर व्याख्या भी करता है.

  16. प्रेम दो स्वतंत्र व्यक्तियों में ही संभव है। यह भी अधूरा लगता है। दो बन्दियों में भी प्रेम हो सकता है और संभवतः दो स्वतंत्र व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक प्रगाढ़।

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