सोचा था कि फ्रेंडशिप डे पर तो आज कुछ नहीं लिखूँगी. वैसे ये पोस्ट उस पर है ही नहीं. ये मेरी एक सहेली के बारे में है. चंद्रकांता भारती, जिसे प्यार से हमलोग ‘चैंडी’ कहते हैं, हॉस्टल के दिनों से ही. एक बेहद आत्मनिर्भर, मजबूत, विटी और ऐक्टिव लड़की, जिसने नेट क्वालिफाइड और पीएच.डी. में एनरोल्ड होते हुए भी अपने लिए एक दूसरा ही रास्ता चुना. वो दलित फाउन्डेशन नाम के एक एन.जी.ओ. में काम करती है और अपने काम के प्रति पूरी तरह समर्पित है.
अपने काम के सिलसिले में चैंडी को विभिन्न राज्यों की दलित बस्तियों में जाना पड़ता है. वो अपने काम से तो जाती ही है, बहुत सी ऐसी जीवंत तस्वीरें लेकर आती है, जो एक ओर तो हमारे देश की समृद्ध परम्परा के बारे में बातें बताती हैं, दूसरी ओर दलितों की आर्थिक स्थिति के विषय में. फोटोग्राफी उसका शौक है और उसने अपने शौक को अपने काम का एक हिस्सा बना लिया है, एक मिशन की तरह.
हमारे संविधान के निर्माण के समय ही दलितों के लिए नौकरी में आरक्षण की व्यवस्था की गयी, जो अभी तक जारी है. ध्यातव्य हो कि डॉ. अम्बेडकर पूरी तरह इसके पक्ष में नहीं थे और अब इसके परिणाम सामने आ रहे हैं. दलितों के आरक्षण के साथ ही उनकी शिक्षा-दीक्षा और जागरूकता के लिए मुहिम चलानी चाहिए थी, जो कि नहीं किया गया. परिणामतः आज जो दलित आर्थिक रूप से सशक्त भी हैं, वे भी शेष समाज से नहीं जुड़ पाए हैं और खुद उनमें उस स्तर की जागरूकता नहीं है, जैसी कि उस आर्थिक स्तर वालों की होनी चाहिए.
खैर, ऐसा मैं सोचती हूँ. इस विषय पर लोगों में मत-वैभिन्न्य हो सकता है. पर मेरा सिर्फ ये कहना है कि मात्र आरक्षण से कुछ नहीं होगा. दलितों में जागरूकता लाने और उन्हें शेष समाज से जोड़ने के प्रयास भी होने चाहिए.
मैं आज मुसहर जनजाति की चैंडी द्वारा ली गयी कुछ फोटो अपलोड कर रही हूँ. देखिये ये कितना अपनी बात कह पाती हैं और लोग कितना समझ पाते हैं. मुसहर बिहार और पूर्वी यू.पी. की जनजाति है, जिसके बारे में यह कहा जाता है कि वह चूहे मारकर खाते हैं… इससे अधिक अगर जानना हो तो आप यहाँ और यहाँ देख सकते हैं.
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मुसहरों द्वारा बनाए दोने और पत्तल, जिन्हें हम बेझिझक इस्तेमाल करते हैं, पर मुसहर अछूत हैं.
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माँ-बच्चे
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मुसहरों की बस्ती
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मुसहर बस्ती और लोग
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मुसहर महिलायें
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अंधियारे की रोशनी
ये पोस्ट चैंडी के नाम … मुझे गर्व है कि वो मेरी सहेली है.