आज ही किशोर चौधरी का कहानी संग्रह ‘चौराहे पर सीढियाँ’ पढ़कर समाप्त (?) किया है। समाप्त के आगे प्रश्नचिन्ह इसलिए लगा है क्योंकि कोई भी किताब पढ़कर समाप्त नहीं की जा सकती और चौराहे पर सीढियाँ जैसी किताब तो बिल्कुल नहीं। ऐसी किताबें शुरू तो की जा सकती हैं, लेकिन खत्म नहीं क्योंकि आप उनके असर से ही बाहर नहीं निकाल पाते खुद को।
मैं इस पुस्तक की समीक्षा नहीं लिखने जा रही क्योंकि पहली बात तो मैं खुद को इस काबिल नहीं समझती और दूसरी बात किसी भी निरपेक्ष समीक्षा के लिए उसके प्रभावक्षेत्र से बाहर आना ज़रूरी होता है और मैं अभी वहीं अटकी हुयी हूँ। इस नज़रिए से देखा जाय, तो शायद मैं कभी इसकी समीक्षा न लिख सकूँ…मैं बस अपने अनुभव बाँटना चाहती हूँ, जैसा कि मैंने इस किताब को पढ़ते हुए महसूस किया।
चौदह कहानियों वाली दो सौ पेज की इस किताब को पढ़ने में मुझे एक महीना लग गया। एक तो पिछले कुछ दिन से मैं और मेरी दिनचर्या बहुत अस्त-व्यस्त है…दूसरे एक कहानी को पढ़ने के बाद उसका असर कम से कम दो-तीन दिन तक दिमाग पर हावी रहता है। नौ फरवरी को ये किताब मुझे मिली। मैंने एक कहानी तो दूसरे ही दिन पढ़ डाली, लेकिन बाकी को पढ़ने में काफी समय लगा।
किशोर की कहानियों को पढ़ना मानो ज़िंदगी को एक नए नज़रिए से देखना है। हर एक कहानी का कथ्य और शिल्प अपने में बेजोड़ है। मानवीय सम्बन्धों के सूक्ष्म बुनावट पर बारीकी से नज़र डालती हुयी ये कहानियाँ आपको अपने आस-पास के माहौल को एकदम अलग ढंग से दिखाती हैं। कुछ बेहद नए बिम्ब सामने आते हैं, जिन्हें पढ़कर मैं चकित रह जाती हूँ कि किसी बात को इस ढंग से भी कहा जा सकता है। जो कहानियाँ मुझे सबसे अधिक पसंद आयीं, वो हैं- गीली चाक, चौराहे पर सीढियाँ, खुशबू बारिश की नहीं मिट्टी की है, गली के छोर पर अँधेरे में डूबी एक खिड़की और अंजलि तुम्हारी डायरी से बयान मेल नहीं खाते। मुझे ये कहानियाँ ही क्यों ज़्यादा पसंद आयीं, इसका कोई ठीक-ठीक जवाब नहीं है मेरे पास। हो सकता है कि मैं उनके पात्रों के साथ खुद का जुड़ाव महसूस कर रही हूँ या कहानी ही अपनी सी लगी हो या कहानी कहने का ढंग बेहद रोचक रहा हो।
अंजलि की कहानी पढ़ने के बाद मैं अवाक् थी और दुखी भी। ये एक अभागी लड़की की कहानी हो सकती है, लेकिन ऐसी लड़कियाँ अपने आस-पास मिल जायेंगी आपको। खासकर मेरे जैसी लड़की को, जो खुद एक हॉस्टल में रही हो और अनगिनत लड़कियों की ज़िंदगी की कहानियों को करीब से देख चुकी हो। इस दुनिया में भोली-भाली और भावुक लड़की की कोई जगह नहीं अगर वो अकेली हो तो। हाँ, उसे कोई अच्छा साथी मिल जाय, जो उसको ‘इस्तेमाल’ न करे, तो ये उसकी खुशकिस्मती है। इस कहानी को पढ़ने के बाद मन घोर निराशा में डूब जाता है और मैं ये सोचती हूँ कि कहानीकार ने कैसे एक घटना के चारों ओर कहानी बुन डाली?
कहानी ‘चौराहे पर सीढियाँ’, जिसके नाम पर संग्रह का नाम रखा गया है, अद्भुत कहानी है। कथ्य तो बेमिसाल है, लेकिन शिल्प की दृष्टि से यह कहानी मुझे अद्वितीय लगी। मैं ज़्यादा कुछ नहीं कहूँगी, बस कुछ अंश उद्धृत कर रही हूँ-
“यह कई बार सुना गया था कि कुछ लोग रिश्तों को सीढ़ी बनाकर चढ़ जाते हैं और फिर वापस लौटना भूल जाते हैं। लेकिन ये कभी नहीं सुना कि चलने में समर्थ लोग नीचे रह गए किसी रिश्ते को उठाने के लिए कुछ देर घुटनों के बल चले हों।”…
“रास्ते के बारे में यह प्रसिद्ध था कि वह कहीं जाया करता है। लोग पूछा करते थे कि ये रास्ता कहाँ जाता है। ऐसा पूछने वालों से कुछ मसखरे कहते थे कि रास्ते कहीं नहीं जाते। वे यहीं पड़े रहते हैं लेकिन ये बात सच न थी। रास्ते समय के साथ चलते रहते थे। वे आपको समय से आगे-पीछे होने का सही ठिकाना बता सकने का हुनर रखते थे।”
‘खुशबू बारिश की नहीं मिट्टी की है’ एक बेहद खूबसूरत कहानी है, जो स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की सूक्ष्म पड़ताल करती हुयी एक खूबसूरत नोट के साथ खत्म होती है… खुशबू तो मिट्टी में पहले से मौजूद होती है, बारिश बस उसकी याद दिला देती है। शहरी जीवन के दिखावटी माहौल में रिश्तों की गर्मी को बचाए रखना बहुत कठिन होता है। एक उदाहरण देखिये। पार्टी का एक दृश्य-
“अपने-अपने ग्लास थामे हुए सब मर्द एक-दूसरे से इतने दूर खड़े थे कि कहीं छूत फैली हो। लेकिन शहरी जीवन में एक-दूसरे से दूर हो जाना ही असली सफलता है।”
‘गली के छोर पर अँधेरे में डूबी एक खिड़की’ प्रेम के रहस्यों को टटोलती है। प्रेम में डूबे दो युवाओं के मन की उद्विग्नता, आकुलता, छटपटाहट, दुस्साहस, नफरत आदि को अलहदा ढंग से प्रस्तुत करती है.
“लेकिन उन मुलाकातों से राहत आने की जगह बेचैनी की आफ़त आ जाया करती थी। दो बार देखा और तीन बार इशारे किये फिर आगे का पूरा दिन और रात खराब हो जाती थी।”
“…खिड़की में लगे हुए एक लोहे के सरिये को पकड़े हुए वह विदा लेने को ही था तभी एक नर्म नाज़ुक स्पर्श ने पागल-सा कर दिया। वह खुशी से झूमना चाह रहा था किन्तु इस नाज़ुक और प्रतीक्षित स्पर्श से उपजी उत्तेजना के अतिरेक में जड़वत हो गया।” (ये टुकड़ा पढ़ते हुए मुझे लगा कि मैं संस्कृत का कोई काव्य पढ़ रही हूँ।)
“इस बढ़ते जा रहे प्रेम में अब चाँद की परवाह कौन करता! एक नए किस्म का दुस्साहस उसमें भर गया था। वह पगलाया हुआ दूधिया रौशनी के बिछावन पर खड़ा खिड़की को चूमता रहता था। कुछ नयी खुशबुएँ भी उसी खिड़की में पहली बार मिलीं। एक अनूठी देहगंध बिस्तर के पसीने और सलवटों से भरी हुयी, उसके बदन के पास मंडराती रहती।”
मेरी सबसे अधिक मनपसंद कहानी ‘गीली चाक’ लगभग हर युवा पाठक की फेवरेट कहानी होगी, ये मैं पूरे दावे के साथ कह सकती हूँ। इस कहानी के बारे में कुछ बताकर मैं पाठकों का मज़ा किरकिरा नहीं करना चाहती। लेकिन कुछ खूबसूरत टुकड़े (वन लाइनर्स) ज़रूर शेयर करना चाहूँगी।
“पानी खत्म हो गया, बोतल बोझ हो गयी। प्रेम नहीं रहा, देह से नाता भी जाता रहा। ऐसे ही काश हर बंधन से आज़ाद हुआ जा सकता।”
“दीवारों पर पान गुटके की पीक फैली थी। जैसे किसी महबूब ने पिए हुए कह दिया हो, हाँ मैं तुम पर मरता था। और महबूबा भूत काल के ‘था’ को पकड़कर बैठ गयी हो।”
“सुबह की सर्द हवा में सफ़ाई वाली औरत ने अपने झाडू से कचरे को एक तरफ किया और गर्द चारों तरफ़ हो गयी। जैसे प्रेम कोई करता है और खुशबू सब तक आती है।”
“ये कोई ज़िंदगी थी? इसमें सिवा इसके कोई ख़ूबसूरती न थी कि ये बहुत अनिश्चित जीवन था।”
मैं ये कहानी पढ़कर बहुत रोई।क्यों? पता नहीं। लेकिन बहुत से युवा इस कहानी खुद को आसानी से जोड़ सकते हैं, खासकर वे, जो अपने घरों से दूर किसी बड़े शहर या महानगर में रहकर अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
बहुत दिनों बाद कोई किताब पढ़कर रोई, निराश हुयी, मुस्कुराई, उदास और बेचैन हुयी। बहुत दिनों बाद रात-रात में जागकर कहानियों की कोई किताब पढ़ी। वो कहानी ही क्या जो आपको भीतर तक हिला न दे? और किशोर की हर एक कहानी ने अन्दर तक प्रभावित किया। अभी मैं उस असर से बाहर नहीं निकल पायी हूँ।

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