शीर्षक पढ़कर ही अजीब सा एहसास होता है ना? कैसे गंदे-गंदे ख़याल आ जाते हैं मन में. “एक तो औरत, ऊपर से अकेली. कहाँ है, कैसी है, मिल जाती तो हम भी एक चांस आजमा लेते.” … ऐसा ही होता है. अकेली औरत के साथ सबसे बड़ी समस्या ये होती है कि उसे सब सार्वजनिक संपत्ति समझ लेते हैं. बिना जाने कि वह किन परिस्थितियों में अकेले रहने को मजबूर है, लोग ये समझ लेते हैं कि वो अत्यधिक स्वच्छंद प्रवृत्ति की है और इसीलिये किसी एक के साथ बंधकर नहीं रह सकती. जो लोग थोड़े भले होते हैं वो शादी ना करने के नुकसान बताकर शादी करने की सलाह देने लगते हैं. जैसे वो औरत इतनी बेवकूफ है कि उसे शादी के फायदे-नुकसान के बारे में पता ही नहीं है.
दो-तीन दिन पहले मैंने एक ब्लॉग पर टिप्पणी में ये बात कही थी और फिर यहाँ दोहरा रही हूँ कि अकेले रहना ना पूरी तरह मेरी मजबूरी है और ना ही मेरी इच्छा. बेशक मैंने बचपन से ही और लड़कियों की तरह कभी दुल्हन बनने के सपने नहीं संजोये. मैंने हमेशा ये सोचा कि मुझे कुछ अलग करना है. और ससुराल का इतना डर बिठा दिया जाता है हमारे यहाँ कि मुझे लगता था मैं जो कुछ भी करना चाहती हूँ, वो ससुराल वाले नहीं करने देंगे. इसलिए मैंने सोच लिया था कि कभी शादी नहीं करूँगी. बचपन में माँ के देहांत के बाद तो मेरा ये इरादा और पक्का हो गया था. लेकिन मैंने अकेले रहने के बारे में कभी नहीं सोचा था. मैं चाहती थी कि मैं अपने पैरों पर खड़ी हो जाऊँ और पिताजी के साथ रहूँ. हालांकि पिताजी मुझे आत्मनिर्भर देखना चाहते थे और हमेशा कहते थे कि मेरी चिंता मत करो, बस आगे बढ़ती रहो.
ऐसा नहीं है कि मैंने कभी प्यार के बारे में नहीं सोचा. और लड़कियों की तरह मैंने भी प्यार किया और हर एक उस पल को पूरी शिद्दत के साथ जिया, ये सोचकर कि पता नहीं आने वाला कल कैसा हो? लेकिन फिर भी शादी मेरे एजेंडे में नहीं थी. मुझे हर समय पिताजी की चिंता लगी रहती थी. वे घर पर अकेले रहते थे और मैं इलाहाबाद हॉस्टल में. मैं जल्द से जल्द कोई नौकरी पाकर उन्हें अपने पास बुला लेना चाहती थी. लेकिन, 2006 में पिताजी के देहांत के बाद मेरा ये सपना टूट गया. अकेले रहना मेरी मजबूरी हो गई. मैं दिल्ली आ चुकी थी और महानगरीय जीवन को काफी कुछ समझ चुकी थी. ये जानते हुए कि इलाहाबाद जैसे शहर में किसी लड़की का अकेले रहना आज भी दूभर है, मैंने दिल्ली में रहने का फैसला कर लिया.
यहाँ कम से कम आपको हर वक्त लोगों की प्रश्नवाचक दृष्टि का सामना नहीं करना पड़ता. हर तीसरा आदमी आपसे ये जानने की कोशिश नहीं करता कि आपने शादी की या नहीं, नहीं तो क्यों नहीं. कुल मिलाकर ना किसी के पास इतनी फुर्सत है और ना गरज कि वो आपके व्यक्तिगत जीवन में ताँक-झाँक करे. हाँ, कुछ महिलाओं ने ये जानने की कोशिश ज़रूर की कि मेरी ‘मैरिटल स्टेटस’ क्या है? पर मैंने किसी को कोई सफाई नहीं दी. बस मुस्कुराकर इतना कहा कि इससे क्या फर्क पड़ता है? और आगे किसी ने कुछ नहीं पूछा.
जब आप अकेले होते हैं और आपके ऊपर कोई बंधन नहीं होता, तो खुद ही कुछ बंधन लगाने पड़ते हैं. कुछ सीमाएं खींचनी पड़ती हैं, कुछ नियम बनाने पड़ते हैं. सभी को चाहे आदमी हो या औरत. बस ये खुद पर निर्भर करता है कि कहाँ और कितनी लंबी रेखा खींचनी है. और ये बात सबको मालूम होती है अपने बारे में, कोई दूसरा ये तय नहीं कर सकता. ऐसा इसलिए ज़रूरी हो जाता है कि हर एक बात की एक सीमा होती है. अगर आप खुद से ये तय नहीं करते तो दूसरे तय करने लग जाते हैं और फिर आपके हाथ में कुछ नहीं रहता.
मैंने भी अपनी कुछ सीमाएं तय कर रखी हैं. अब चूँकि मैं अकेली हूँ और बीमार पड़ने पर कोई
देखभाल करने वाला नहीं है, तो भरसक खाने-पीने का ध्यान रखती हूँ. व्यायाम करने की भी कोशिश करती हूँ. बाहर का खाना नहीं खाती, जिससे संक्रामक रोगों से बची रहूँ. मैं बहुत कम लोगों को अपना फोन नंबर देती हूँ, यहाँ तक कि अपने बेहद करीबी रिश्तेदारों को भी नहीं. मेरा पता भी बहुत कम लोगों को मालूम है और बेहद करीबी दोस्तों के अलावा किसी को भी मैं अपने कमरे पर मिलने को नहीं बुलाती. चूँकि मुझे अपनी सुरक्षा के साथ, स्वतंत्रता का भी ध्यान रखना पड़ता है, इसलिए ये और भी ज़रूरी हो जाता है कि मैं फोन नंबर, पता ई-मेल आदि गिने-चुने लोगों को दूँ.
मेरा बहुत मन करता है रात में सड़कों पर टहलने का, पर मैंने कभी अपनी ये इच्छा पूरी करने की हिम्मत नहीं की. मैं जब भी अकेली बाहर जाती हूँ तो कोशिश करती हूँ कि आठ-साढ़े आठ बजे तक घर पहुँच जाऊँ. नौ बजे के बाद मोहल्ले से बाहर नहीं जाती. हमेशा ये याद रखती हूँ कि ये दिल्ली है, औरतों के लिए सबसे अधिक असुरक्षित महानगर. हाँ, अपने मोहल्ले में ग्यारह बजे तक टहल सकती हूँ क्योंकि यहाँ ज्यादातर स्टूडेंट्स रहते हैं जिनके कारण बारह-एक बजे तक चहल-पहल रहती है.
अब मैं अपनी सबसे पहली बात पर आती हूँ. अकेली औरत को प्रायः लोग सहज प्राप्य वस्तु समझ लेते हैं. अगर वो थोड़ी निडर और बोल्ड हो तो और मुसीबत. मेरे साथ दिक्कत ये है कि मैं अमूमन तो किसी से बात करती नहीं, लेकिन जब दोस्ती हो जाती है, तो एकदम से खुल जाती हूँ. मुझे जो अच्छा लगता है बेहिचक कह देती हूँ. अगर किसी पर प्यार आ गया है, तो ‘लव यू डियर’ कहने में कोई संकोच नहीं होता. मैं बहुत भावुक हूँ और उदार भी. मेरे दोस्त कई बार मुझे इस बात के लिए टोक चुके हैं कि किसी पर सिर्फ़ इसलिए प्यार मत लुटाने लग जाओ कि उसे इस प्यार की ज़रूरत है. ऐसे तो तुम प्यार बाँटते-बाँटते थक जाओगी. लेकिन चूँकि मैं बहुत कम लोगों से घुलती-मिलती हूँ, इसलिए आज तक मुझे लेकर किसी को कोई गलतफहमी नहीं हुयी.
लेकिन पिछले कुछ दिनों से ये सोच रही हूँ कि अपनी बोल्डनेस थोड़ा कम करूँ? क्या फायदा किसी को निःस्वार्थ भाव से ‘लव यू’ कह देने का या ‘लोड्स ऑफ हग्स एंड किसेज़’ दे देने का जब सामने वाला उसे लेकर भ्रमित हो जाय. मेरे ख्याल से हमारे समाज में लोग (विशेषकर पुरुष) अभी इतने परिपक्व नहीं हुए हैं कि इस तरह के प्यार को समझ पायें. उन्हें लगता है कि स्त्री-पुरुष के बीच सहज स्नेह सम्बन्ध जैसा कुछ नहीं होता. अगर होता है तो बस आदिम अवस्था वाला विपरीतलिंगी प्रेम होता है. जबकि मैं ऐसा मानती हूँ कि ऐसा प्रेम एक समय में एक ही के साथ संभव है, चाहे वो पति हो, पत्नी हो या प्रेमी. पर जब तक कि हमारा समाज इतना परिपक्व नहीं हो जाता कि सहज स्नेह को समझ सके, मेरा और सम्बन्ध बनाना स्थगित रहेगा.
अकेले रहने का इतना तो खामियाजा भुगतना ही पड़ेगा.
28.635308
77.224960