बाऊजी की बातें
मेरे बाऊजी बहुत दिलचस्प इंसान थे. चीज़ों को देखने का उनका खुद का नजरिया होता था और वो बड़ा अलग और अनोखा था. किसी भी विषय में मेरी उत्सुकता का उत्तर वे बहुत तार्किक ढंग से देते थे. ऐसे कि बात समझ में आ जाती थी और मनोरंजक भी लगती थी.
बुद्ध की ज्ञानप्राप्ति के विषय में मेरी जिज्ञासा के समाधान में उनका एक बड़ा मजेदार किस्सा याद आता है. सातवीं-आठवीं कक्षा में कुछ धर्मों के विषय में पढ़ाया गया. बुद्ध के बारे में मैंने पढ़ा कि सालों साल तपस्या करने के बाद एक दिन बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ. मेरे मन में एक प्रश्न उठा और सारा ध्यान उसी पर अटक गया. प्रश्न यह था कि ज्ञान कोई एक दिन में अर्जित करने वाली चीज़ तो है नहीं, तो बुद्ध को एक दिन में ज्ञान कैसे प्राप्त हो गया? मैंने बाऊ से पूछा कि बुद्ध ने जो शिक्षाएं दी थीं, वे या तो उन्हें पहले से मालूम रही होंगी या बाद में दिमाग में आयी होंगी. ज्ञान तो अध्ययन-चिंतन और मनन से ही होता है. तपस्या करने से ज्ञान कैसे प्राप्त हो सकता है? और वो भी एक दिन में. बाऊजी जल्दी जवाब भी नहीं देते थे, पहले तो टालते रहे. आखिर मेरे बार-बार पूछने पर कि “बुद्ध को एक दिन में ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ?” बाऊ ने कुछ इस तरह समझाया.
सिद्धार्थ बचपन से बड़े संवेदनशील थे. जीवन की हर घटना-दुर्घटना उनके मन पर प्रभाव डालती थी. राजभवन में रहकर भी वे सन्यासियों की तरह विरक्त थे. आखिर एक दिन उन्होंने घर छोड़ दिया और ज्ञान की तलाश में भटकने लगे. अपनी जिज्ञासा के समाधान के लिए वे जगह-जगह भटके. कई विद्वानों से मिले. फिर कठोर तपस्या आरम्भ की. कई वर्ष बीत गए, सिद्धार्थ तप से कृशकाय हो गए, पर कोई लाभ नहीं हुआ. एक दिन बुद्ध को समझ में आया कि “हिंसा बहुत बुरी चीज़ है और अपने शरीर के साथ भी हिंसा नहीं करनी चाहिए. इसलिए ये तपस्या वगैरह बेकार है. ढोंग है. ईश्वर यदि कहीं होता तो इतनी कठोर तपस्या के बाद अवश्य प्रकट होता. इसलिए ईश्वर का भी अस्तित्व नहीं है.” दिमाग में ये बात आने के बाद उनके सामने सारी बातें स्पष्ट होती चली गयीं. इसे ही ‘ज्ञान-प्राप्ति’ कहा गया.
जो भी है बस यही जीवन है. इसमें बहुत दुःख और कष्ट हैं, लेकिन उन्हें कुछ बातों का ध्यान रखते हुए सहन किया जा सकता है. यदि हम भोगों में पूर्णतः आसक्त ना हों, तो उनकी कमी से होने वाला कष्ट नहीं होगा. इसी तरह कठोर तप भी कष्ट का कारण होता है. इसलिए उन्होंने सीधे-सादे मध्यममार्गी जीवन की शिक्षा दी, जो ना अधिक कठोर हो और ना ही असंयमित.
बाऊजी की बातें सुनकर मेरी समझ में बहुत कुछ आया, थोड़ा-बहुत नहीं भी. वो जो कि बहुत गूढ़ दार्शनिक विषय था और उस उम्र में समझ में नहीं आ सकता था. लेकिन मेरे बार-बार जिद करने पर बाऊजी ने मुझसे कहा था कि ‘क्या नचिकेता की तरह पीछे पड़ गई हो?’ अब एक नया प्रश्न मेरे सामने था ‘नचिकेता कौन है?’ 🙂