भागना परछाइयों के पीछे-पीछे…

छुटपन में, जब पेड़ों की परछाइयाँ धूप से लड़ते-लड़ते, शाम को थककर ज़मीन पर पसर जाती थीं, तो हम उनकी फुनगियों पर उछल-कूद  मचाते थे और कहते थे “देखो, हम पेड़ की फुनगी पर हैं”—बचपन कितना मासूम होता है, परछाइयों से खेलकर खुश हो लेता है. पर, हम अब भी तो वही कर रहे हैं—आभासी दुनिया की वाहवाहियों पर खुश हो लेते हैं… आभासी अनबन पर दुश्मनी कर बैठते हैं… पर क्या ये खुशी और दुःख भी आभासी होते हैं… पता नहीं, लेकिन हम फिर भी खुश भी होते हैं और दुःखी भी… हम परछाइयों के पीछे-पीछे भागते रहते हैं…

लोग कहते हैं कि परछाइयाँ अँधेरे में साथ छोड़ देती हैं… मुझे नहीं लगता. अँधेरे में परछाइयाँ फैलकर अँधेरे का रूप ले लेती हैं. उजाले में हमारे एक ओर चलती हैं, पर अँधेरे में चारों ओर से घेरे रहती हैं… हमारे साथ होती हैं… बस दिखती नहीं.

पिछले कुछ दिनों से बाउ-अम्मा की यादों को समेट रही थी, जो दिमाग के हर कोने में बिखरी हुयी हैं कि अम्मा पर लिखते-लिखते अचानक रुक गयी. जितने दिन लिखा उनके बारे में, तो लगा जैसे वो दिन फिर से जी लिये हैं, उनके साथ… तीसरी किस्त इसलिये नहीं लिख पा रही कि उसमें मुझे उनको फिर से खोना पड़ेगा… वास्तविक दुनिया में खोने के बाद… एक बार फिर से आभासी दुनिया में…

पर, अब धीरे-धीरे समझ में आ रहा है कि वो खोयी कहाँ है? यहीं तो हैं मेरे साथ… कभी परछाईं कभी अँधेरा बनकर… वो यहीं हैं, पर मैं उन्हें छू नहीं सकती… ज्यों आगे बढ़ती हूँ छूने के लिये, वो आगे बढ़ती जाती हैं, और मैं उनके पीछे-पीछे…

…शायद ऐसे ही भागती रहूँगी परछाइयों के पीछे, जब तक कि वो परछाईं शाम ढले थककर, निढाल होकर ज़मीन पर पसर नहीं जाती… और फिर मैं उसकी गोद में जा बैठूँगी और ये सोचकर खुश हो लूँगी कि मैं अम्मा की गोद में बैठी हूँ


47 विचार “भागना परछाइयों के पीछे-पीछे…&rdquo पर;

  1. मैं कुछ नहीं कह पा रहा हूँ पर आपकी संवेदना का अनुभव कर सकता हूँ -यह आभासी संसार ही नहीं पूरा जगत ही मायामय है –
    अर्धश्लोकें प्रवक्ष्यामि यद्युक्तं ग्रन्थ कोटिभिः
    ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या ना जीवो ब्रह्मैं परे
    (श्लोक गलत हो तो क्षमा और शुद्ध कर लीजियेगा
    आप मेरी संस्कृत दर्शिका हैं ! )

  2. उजाले और अंधेरों का जीवन चक्र समय की अंगुलियों पर थिरकता है ! वहां स्थायित्व नहीं है …स्थिरता नहीं है और अमरत्व अगर है भी तो गति का… निरंतरता का ! आगे फिर कोई अम्मा के अहसास पर नये सिरे से लिखेगा ! तब अम्मा…रिश्ते…अनुभूतियां और स्मृतियां …इन अंधेरों … उजालों… को मुंह चिढ़ाती हुई… हरी हो जायेंगी …आखिर को ये हरियाते रहने को नियत जो की गई हैं !

  3. @ Mukti ji-

    तीसरी किस्त इसलिये नहीं लिख पा रही कि उसमें मुझे उनको फिर से खोना पड़ेगा… ..

    You cannot lose a person twice. Try to write the third part too. Live the moments again with your mother. She was never away and she will never be away from you. Believe me a mother lives with her children always. Even after her demise , a mother lives with her children in a different form. She becomes her strength, She lives in her daughter as her maturity, as her wisdom and with a clear vision. She becomes her guiding light in all her future endeavours.

    I lost my mother in 2007 , when i was only 26. But after her demise, i found myself stronger and more matured. I discovered a new energy and zeal in myself. I find my mother guarding and guiding me since then. I never lost my mother and i never will. Even today while writing this comment, i am living all the happy moments with my darling mom.

    Mukti ji, ….try to write the fourth part also, in which your mother is living with you as your strength and guiding light.

    with love and best wishes,
    Divya

  4. अँधेरे में परछाइयाँ फैलकर अँधेरे का रूप ले लेती हैं. उजाले में हमारे एक ओर चलती हैं, पर अँधेरे में चारों ओर से घेरे रहती हैं…’
    -ये बात आप ने कितनी अच्छी कही ..हम खुद से कभी अलग नहीं हो पाते न हमारे साये..कितना सुखद अहसास है.
    अब अंधेरों से डर नहीं लगेगा.
    -माँ हमारे वज़ूद में रहती है हर दम..कभी जुदा नहीं होती.

  5. @ …तीसरी किस्त इसलिये नहीं लिख पा रही कि उसमें मुझे उनको फिर से खोना पड़ेगा…
    ——— लिखने के लिए निर्वैयक्तिक होना पड़ता है न ? टी.एस.इलियट की बात में दम लगता है ..
    अपनी रुकी उँगलियों में अक्सरहा ऐसी ही शिकायत दिखती है मुझे , जैसे कोई फैंच गडी हो !

  6. और फिर मैं उसकी गोद में जा बैठूँगी और ये सोचकर खुश हो लूँगी कि मैं अम्मा की गोद में बैठी हूँ
    सघन बूँद सी टपकती रही भावनाएँ
    अम्मा का आँचल बहुत विस्तृत होता है
    और फिर माँ के आँचल सी यह रचना ————

  7. जील और आराधना -आप दोनों तो समान वयी ,अनुभवी ,और समान मनसा दिखती हैं! माँ से आप दोनों ही कितना अनुरक्त हैं !
    आप दोनों को ही एक एक भाषा पर विद्वतापूर्ण अधिकार है ,एक जैसे अनुभव और अनुभूतियाँ हैं
    मैं दोनों का ही गर्वित मित्र हूँ —स्नेहाशीष !

  8. लोग कहते हैं कि परछाइयाँ अँधेरे में साथ छोड़ देती हैं… मुझे नहीं लगता. अँधेरे में परछाइयाँ फैलकर अँधेरे का रूप ले लेती हैं
    sach kah rahi hain aap….

  9. आपकी संवेदनाओं के आगे भाषा गुम है …माता पिता जाने के बाद भी कभी नहीं जाते …परछाई बनकर साथ ही रहते हैं …ऐसी अनुभूतियों से गुजरते हुए जब उन अभिभावकों के बारे में सोचती हूँ जो अपने बच्चों के लिए दुनिया में होते हुए भी नहीं होते …. कितने भाग्यहीन होते होंगे ना …

  10. .
    .
    .
    आदरणीय आराधना जी,

    मैं तो कुछ नहीं कह पा रहा हूँ पर आपकी संवेदना का अनुभव कर सकता हूँ…

    -यह आभासी संसार ही नहीं पूरा जगत ही मायामय है –

    आदरणीय अरविन्द मिश्र जी ने एक बहुत बड़े सत्य को उद्घाटित किया है यह कहकर… पर इस सत्य से घबराता बहुत है इंसान… इसे पचा पाना इतना आसान नहीं !

  11. परछाइयों के पीछे भागने से तो वे छलावा देंगी ही….बस शांत-चित्त एक जगह बैठ जाने पर वे पास सिमट आएँगी…
    जिसने दूर जाकर ह्रदय में अपना घर बना लिया हो..उसे नहीं खो सकते हम कभी…हाँ बार बार ह्रदय में झाँक देखना मुश्किल होता है…और लोगों से बांटना और मुश्किल..
    कैसी तबियत है तुम्हारी, अब??…बहुत अच्छा लिखा है…उदास मन से लिखी पोस्ट कुछ कुछ उदास कर गयी..

  12. क्या कहूं? इतना सम्वेदनशील मामला है कि इसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है. मां-बाबा का नहीं होना कितना बड़ा शून्य भर देता होगा, लेकिन आराधना जी, स्थितियों को जस का तस स्वीकारना ही तो नियति है.

  13. इसमें लगाए गए चित्र के साथ शायद इससे खूबसूरत शब्द-चित्र नहीं हो सकता था…

    चित्र और शब्द चित्र- दोनों पर भयानक तौर पर मुग्ध हूं…
    (भयानक शब्द को कृपया यहां मेरे भाव के अर्थ में लीजिएगा…)

    आभासी दुनिया को जमीन पर उतार लाने की इससे खूबसूरत मिसाल और क्या हो सकती है…

  14. लोग कहते हैं कि परछाइयाँ अँधेरे में साथ छोड़ देती हैं… मुझे नहीं लगता. अँधेरे में परछाइयाँ फैलकर अँधेरे का रूप ले लेती हैं. उजाले में हमारे एक ओर चलती हैं, पर अँधेरे में चारों ओर से घेरे रहती हैं… हमारे साथ होती हैं… बस दिखती नहीं.

    पढ़कर अच्छा लगा। इस लेख को पढ़कर अपने भाई की याद आ गयी!

  15. अधीर करती हैं आप कुछ कहने को !

    देखता हूँ तो हठात आपमें चिन्तन की आराधना दिखती है, फिर उसमें भावों को टटोलना और फिर अर्चित-सा हो जाना अकस्मात अक्षय-द्युतिमान मुक्ता-मणियों से !

    गद्य के बंधन से निपट भागना चाहता है यह मन ! माँ है तो कविता है !

  16. परछाइयों के पीछे भागने का भी अपना ही मज़ा है, खैर मुझे लगता है जिसे बचपन में खेल समझते थे ऑर बड़े होकर नासमझी उसे खोकर बहुत कुछ खो दिया है .

  17. अच्छा लगा…कुछ वाक्य तो एकदम नवीन से लगे…दृष्टि…

    वैसे मैं सोच रहा था कि क्या परछाईयां आभासी होती हैं?…
    शायद वे निर्भर होती हैं…रौशनी के लिए….
    क्या इसलिए…उन्हें आभासी समझा गया….

    यह जगत भी शायद इसीलिए मिथ्या लगता है….?

    “…अँधेरे में परछाइयाँ फैलकर अँधेरे का रूप ले लेती हैं. उजाले में हमारे एक ओर चलती हैं, पर अँधेरे में चारों ओर से घेरे रहती हैं….”
    क्या पंक्ति हैं….

  18. चिन्तन बहुत गहन, भावुक मगर हौसलामन्द!
    यादों का सहारा भी बड़ा होता है, जब तक सहारा रहे, बोझ न बने।
    और यादें क्या? आभास!
    जीवन क्या? आभास!
    तो जीवित ही हैं वो जो यादों में जीवित हैं।

  19. जानती हो मां पर ग्रन्थ लिखे जा सकते है ……ओर कमाल की बात है आप कभी महसूस नहीं करते के इस अहसास से तो पहले भी गुजरे है …..मां बड़ी हसीन शै है एक उम्र में आपकी सबसे बड़ी दोस्त….वैसे भी यूँ कहा जाता है के बेटी मां के सपनो का पौधा होती है …………

  20. लोग कहते हैं कि परछाइयाँ अँधेरे में साथ छोड़ देती हैं… मुझे नहीं लगता. अँधेरे में परछाइयाँ फैलकर अँधेरे का रूप ले लेती हैं. उजाले में हमारे एक ओर चलती हैं, पर अँधेरे में चारों ओर से घेरे रहती हैं… हमारे साथ होती हैं… बस दिखती नहीं………

    अम्मा ….. आभासी दुनिया की संगिनी … जैसे चारों ओर से घेर रखा हो हमारे अस्तित्व को ….. सच आज भावुक कर दिया …..

  21. मुक्ति ! लम्बी छुट्टियों के बाद यहाँ आई थी तुम्हारा पिताजी पर लिखा संस्मरण पढने जो अधुरा ही था जब मैं गई थी पर अब ये पढ़कर कुछ और पढ़ा ही नहीं जायेगा….
    प्लीज़ मुझे वो सारे लिंक मेल कर दो …बहुत मन है पढने का

  22. आज दिनांक 7 मई 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में आपकी यह पोस्‍ट परछाइयों के पीछे शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई।

  23. मिथ्या में मिथ्या प्रेम भी एक विचित्र कल्पना है..वैसे इस पोस्ट में इन्द्रियों के परे अनुभव कराने वाली बातो का वर्णन है .

    वैसे मुझे अभी श्री आदि शंकराचार्यजी का श्री दक्षिणामूर्ति स्त्रोत्रम का यह स्त्रोत्र याद आ गया.

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    Viswam darpana drusyamana nagari,
    Thulyam nijantargatham,
    Pasyannathmani mayaya bahirivoth,
    Bhutham yatha nidraya,
    Ya sakshath kuruthe prabodha samaye,
    Swathmanameva dwayam,
    Thasmai sri guru murthaye nama idham,
    Sree Dakshinamurthaye., 2

    Similar to the image of a town as seen in the mirror,
    When one sees the image of the world within him,
    The world appears as if it is outside.
    It is similar to his seeing due to illusion,
    During the state of sleep,
    That the one real fact appears as many different truths,
    And he realizes,when he wakes up and sees the reality,
    That he is really the one and only one soul.
    Salutation to the God facing the south,
    Who is the greatest teacher.

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    Arvind K.Pandey

    http://indowaves.instablogs.com/

  24. तू जहां जहां चलेगा मेरा साया साथ होगा…
    बढ़िया आराधना…
    लेखन के चरम का स्पर्श है यहाँ, तुम्हारे इस संक्षिप्त आलेख में…
    बहुत potentiality है तुम में, ये तुम्हारे आखिरी तीन आलेख पढ़कर
    तो और भी सही लगे… सहज शिल्प भी लेखन में…चमक-चमक आभा भी…
    अपनी पढ़ाई, आजीविका उपार्जन के साथ-साथ साहित्य की भी उंगली
    सदा पकडे रहना…जहां तुम्हारी अम्मा और बाऊ जी के आशीर्वाद भी हैं…

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