मेरे गाँव में बरसों पहले हमारा एक मिट्टी का घर था. आँगन, ओसार, दालान और छोटे-छोटे कमरों वाले उस बड़े से घर से धुँए, सौंधी मिट्टी, गुड़(राब) और दादी के रखे- उठे हुए सिरके की मिली-जुली गंध आती थी. घर के पश्चिम में एक बैठक थी. बैठक और घर के बीच के बड़े से दुआर में कई छोटे-बड़े पेड़ों के साथ मीठे फल और ठंडी छाँव वाला एक विशाल आम का पेड़ था, जिसके बारे में अम्मा बताती थीं कि जब वो नयी-नयी ब्याह के आयी थीं, तो सावन में उस पर झूला पड़ता था. गाँव की बहुएँ और लड़कियाँ झूला झूलते हुए कजरी गाती थीं. हमने न कजरी सुना और न झूला झूले, पर आम के मीठे फल खाये और उसकी छाया का आनंद उठाया. तब हर देसी आम के स्वाद के आधार पर अलग-अलग नाम हुआ करते थे. उस पेड़ के दो नाम थे “बड़कवा” और “मिठउआ.” घर के बँटवारे के बाद मिट्टी का घर ढहा दिया गया. उसकी जगह पर सबके अपने-अपने पक्के घर बन गये. बड़कवा आम का पेड़ पड़ा छोटे चाचा के हिस्से में. उन्होंने उसे कटवाकर अपने घर के दरवाजे बनवा दिये. वो पेड़, जो सालों से घर की छाया बना हुआ था, उसके गिरने का खतरा था…बूढ़े लोग अनुपयोगी हो जाते हैं…मँझले चाचा के हिस्से का मिट्टी का घर अभी बचा हुआ है, पर कुछ दिनों में वो भी उसे गिरवाकर ईंट और प्लास्टर का घर बनवाएंगे. एक-एक करके यूँ ही गाँव के सारे मिट्टी के घर मिट्टी में मिल जायेंगे. कभी हुआ करते थे मिट्टी के भी घर, हम अपनी आने वाली पीढ़ी को बताएंगे. जैसा कि हमारी अम्मा उस आम के पेड़ के बारे में बताती थीं कि कभी उस पर पड़ते थे सावन में झूले, कभी इस गाँव की लड़कियाँ और बहुयें कजरी गाती थीं.