देसीपन, दोस्ताना व्यवहार बनाम औपचारिक व्यवहार

हम बचपन से यह सुनते आए हैं कि दूसरों के साथ वैसा व्यवहार करो जैसा तुम अपने लिए चाहते हो। हम इस कहावत पर आँख मूँदकर विश्वास भी करते आए हैं और उस पर अमल करने की कोशिश भी। मुझे लगता है कि यह कथन हमेशा और हर किसी के साथ सही नहीं होता। कई बार हम दूसरों से अपने लिए जैसे बर्ताव की अपेक्षा कर रहे होते हैं,  दूसरा उससे बिल्कुल अलग व्यवहार चाहता है।  जैसे हम किसी से दोस्ताना व्यवहार चाहते हैं, लेकिन दूसरे को हमसे दोस्ती नहीं करनी होती है। हो सकता है वह दोस्ती की अपेक्षा अधिक सम्मान चाह रहा हो या बिल्कुल औपचारिक सम्बन्ध रखना चाहता हो।

मैं अक्सर इस मुश्किल का सामना करती हूँ। दरअसल, मैं जल्दी किसी से घुल-मिल नहीं पाती। इससे होता यह है कि सामने वाला, जो मुझसे अधिक दोस्ताना व्यवहार की अपेक्षा कर रहा होता है, निराश होता है। कुछ लोग इस बात का बुरा भी मान जाते हैं, जबकि मेरे मन में उनके लिए बहुत अच्छी भावनाएँ होती हैं। मैं उनसे दोस्ती भी करना चाहती हूँ, लेकिन धीरे-धीरे आगे बढ़ने में विश्वास करती हूँ। कभी-कभी स्थिति इसके विपरीत भी होती है। मैं किसी से दोस्ती करना चाहती हूँ, लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं होते। पहले मैं दुःखी हो जाती थी, अब नहीं होती। ख़ुद को सुधारने की कोशिश कर रही हूँ।

जान-पहचान वाले लोगों से मिलते और बात करते समय ऐसी परेशानियाँ आती हैं, लेकिन उन्हें सुलझाया जा सकता है। हम उनसे दोबारा मिलकर अपनी कोई भूल सुधार सकते हैं। सामने वाले को उसकी भूल याद दिला सकते हैं। कोई ग़लतफ़हमी हो, तो उसे सुधार सकते हैं। माफी माँग सकते हैं। लेकिन क्या हम कभी सोचते हैं कि अपरिचितों से कैसा व्यहार करना चाहिए?

जी हाँ, मुश्किल तब होती है जब हम किसी ऐसे व्यक्ति से मिल रहे हों, जिससे शायद दोबारा ना मिलना हो। मेरे साथ हाल ही में एक ऐसी घटना हुई, जिसने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि कभी-कभी इस कहावत को उल्टा लागू करने की जरूरत होती है। मतलब “किसी के साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए, जैसा वह व्यक्ति अपने लिए चाहता हो।”  मेरे एक मित्र बहुत मिलनसार हैं। सभी से दोस्ताना व्यवहार करते हैं और वे जिस पृष्ठभूमि से आते हैं, वहाँ अपने करीबी प्रिय लोगों को “तू” कहकर सम्बोधित किया जाता है।  हुआ यह कि हम एक रेस्टोरेंट में बैठे थे,  जहाँ अक्सर एलीट लोग आते हैं। जब अटेंडेंट हमसे आर्डर लेने आया, तो मित्र ने बहुत अपनत्व से उससे तू करके बात की।  तभी अचानक मेरा ध्यान उस युवक के चेहरे पर गया। मुझे लगा कि मित्र के दोस्ताना व्यवहार को उसने शायद दूसरे ढंग से ले लिया।  वह अपने लिए तू सम्बोधन सुनकर खुश नहीं हुआ। इसके विपरीत शायद वह स्वयं को कुछ अपमानित महसूस कर रहा था।

मैं अपने मित्र को पहले भी इस तरह से बोलने पर टोक चुकी हूँ। इस बार भी मैंने धीरे से कहा कि शायद आप का लहजा और भाषा उसे पसंद नहीं आई।  मित्र ने कहा “मैं तो उसे कंफर्टेबल महसूस करा रहा था। हम दोस्तों में ऐसे ही बात करते हैं।”  मैंने कहा कि वह दोस्त नहीं, अजनबी है।  हो सकता है उसे तू  सुनने की आदत ना हो या उसे अच्छा न लगता हो। यह भी सम्भव है कि वह ऐसे माहौल में पला-बढ़ा हो, जहाँ इस तरह से बात नहीं की जाती है।

दरअसल हम अलग-अलग परिवेश से आते हैं।  सबकी भाषा, रहन-सहन, बात का लहजा आदि अलग होते हैं।  इसीलिए अपरिचित लोगों से बात करने के लिए एक मानक भाषा और शिष्टाचार के नियम बनाए गए हैं।  मित्र ने थोड़ा खीझकर मुझसे पूछा तो क्या मुझे उससे रुखाई से बात करनी चाहिए थी। मैंने कहा नहीं, आपको बात करते समय अपनी भावनाओं को एक किनारे रखना चाहिए था।  किसी से भी पहली मुलाक़ात के समय औपचारिक बात ही की जाती है। शिष्टाचार का नियम विनम्रता है प्रेम नहीं मित्र को अपने देसीपन की बड़ी ठसक है। वे कहते हैं कि ज्यादा फॉर्मेलिटी बनावटी लगती है।  मैंने उनसे कहा कि अजनबी लोगों से औपचारिक ढंग से बात करने से आपका देसीपन कम नहीं हो जाएगा। 

3 विचार “देसीपन, दोस्ताना व्यवहार बनाम औपचारिक व्यवहार&rdquo पर;

    1. शुक्रिया सुलभ! आपकी यह टिप्पणी कीमती है मेरे लिए। मैं आज यही सोच रही थी कि लोग कहते थे कि ब्लॉग लिखना फिर से शुरू करो और जब शुरू किया तो कोई पढ़ नहीं रहा।

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