श्रेणी: आस-पड़ोस

सडकों पर जीने वाले

हर शनिवार मोहल्ले में सब्जी बाज़ार लगता है. वहीं सब्जी बेचता है वो. इतना ज़्यादा बोलता है कि लडकियाँ उसको बदतमीज समझकर सब्जी नहीं लेतीं और लड़के मज़ाक उड़ाकर मज़े लेते हैं. मैं उससे सब्जी इसलिए लेती हूँ क्योंकि उनकी क्वालिटी अच्छी होती है. मुझे देखकर दूर से ही बुलाता है. कभी 'बहन' कहता है … पढ़ना जारी रखें सडकों पर जीने वाले

कहाँ जाएँ?

कल की बात है. डॉ के यहाँ जाना ज़रूरी न होता तो घर से ज्यादा दूर निकलती ही नहीं, लेकिन मजबूरी हमसे जो कुछ भी कराये कम है. तीन-चार दिन से धुएं की वजह से जुगनू (मेरा पपी) की आँखों से पानी बह रहा था, इसलिए उसको भी दोपहर बारह बजे टहलाया वो भी सिर्फ … पढ़ना जारी रखें कहाँ जाएँ?

ऊपर वाले

कोई रात के तीन बजे होंगे जब ऊपर से लड़ने-झगड़ने और चीज़ें तोड़ने-पटकने की आवाजें आने लगीं. मैं समझ गई कि टॉप फ्लोर वाले आज फिर झगड़ने के मूड में है. पहले "धम्म" से कोई चीज़ ज़मीन पर गिरी, फिर स्टील की चम्मच-प्लेटें गिरने की आवाजें और सबसे आखिर में "छन्नऽऽ" का शोर. मतलब ऊपर … पढ़ना जारी रखें ऊपर वाले

चाइनीज़ खाने का स्वाद, ग्लूटामेट और मैगी विवाद

लगभग एक साल पहले हम तीन लडकियाँ (वैसे आप महिलायें भी कह सकते हैं 😀 ) अपने एक मित्र को देखकर हिन्दू राव अस्पताल से लौट रहे थे. मित्र तेज बुखार के चलते दो दिन से अस्पताल में भर्ती थे. बाकी दोनों लडकियों को जी.टी.बी. नगर स्टेशन से मेट्रो पकड़नी थी और मुझे ऑटो. इसलिए … पढ़ना जारी रखें चाइनीज़ खाने का स्वाद, ग्लूटामेट और मैगी विवाद

दिए के जलने से पीछे का अँधेरा और गहरा हो जाता है…

फिर फिर याद करना बचपन की छूटी गलियों को…

आराधना का ब्लॉग

मैं शायद कोई किताब पढ़ रही थी या टी.वी. देख रही थी, नहीं मैं एल्बम देख रही थी, बचपन की फोटो वाली. अधखुली खिड़की से धुंधली सी धूप अंदर आ रही थी. अचानक डोरबेल बजती है. मैं दरवाजा खोलती हूँ, कूरियर वाला हाथ में एक पैकेट थमाकर चला जाता है. मैं वापस मुडती हूँ, तो खुद को एक प्लेटफॉर्म पर पाती हूँ.

मैं अचकचा जाती हूँ. नंगे पैर प्लेटफॉर्म पर. कपडे भी घरवाले पहने हैं. अजीब सा लग रहा है. मेरे हाथ में एक टिकट है. शायद कूरियर वाले ने दिया है. अचानक एक ट्रेन आकर रुकती है और कोई अदृश्य शक्ति मुझे उसमें धकेल देती है. मैं ट्रेन में चढ़ती हूँ और एक रेलवे स्टेशन पर उतर जाती हूँ. ये कुछ जान जानी-पहचानी सी जगह है. हाँ, शायद ये उन्नाव है. मेरे बचपन का शहर. लेकिन कुछ बदला-बदला सा.

मुझे याद नहीं कि मैं इसके पहले मैं यहाँ…

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कितनी सदियाँ, कितने देश

'प्यार का पंचनामा' फिल्म देख रही थी. वैसे तो ये फिल्म पूरी तरह लड़कों के दृष्टिकोण से बनी है और लड़कियों को जिस तरह से चित्रित किया गया है, उसे देखकर गुस्सा भी आ रहा था, लेकिन बहुत हद तक ये फिल्म महानगरों में रहने वाली उच्च-मध्यमवर्गीय नयी पीढ़ी की जीवन-शैली को प्रतिबिंबित करती है. … पढ़ना जारी रखें कितनी सदियाँ, कितने देश

सरकारी अस्पताल में एक दिन

अक्सर एक कहावत टाइप की कही जाती है कि दुश्मनों को भी वकील या डॉक्टर के चक्कर ना लगाने पड़ें। और वो भी सरकारी अस्पताल से तो भगवान ही बचाए। फिर भी हम मिडिल क्लास लोगों को कभी न कभी सरकारी अस्पताल जाना ही पड़ता है। आज मुझे भी जाना पड़ा, अपनी छोटी बहन वंदना … पढ़ना जारी रखें सरकारी अस्पताल में एक दिन

कुछ प्रश्न

कुछ प्रश्न हैं, जो अक्सर मस्तिष्क में उमड़-घुमड़ मचाते हैं, लेकिन अफ़सोस उनका जवाब नहीं मिलता। गर किसी के पास किसी एक प्रश्न का उत्तर हो तो बताए प्लीज़- 1. -मुस्लिम आतंकवाद का राग अलापने वालों को हिंदू आतंकवाद क्यों नहीं दीखता और हिंदू आतंकवाद की बात करने वाले मुस्लिम आतंकवादियों की बात पर चुप … पढ़ना जारी रखें कुछ प्रश्न