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सुनो… मुझे तुम्हारी ये बातें अच्छी लगती हैं.

वो शायद जुलाई की शाम थी या अगस्त की...याद नहीं. हम यूँ ही बातें करने की जगह ढूँढते-ढूँढते सरस्वती घाट पहुँच गए थे. वो जगह खूबसूरत है और हमारी मजबूरी भी क्योंकि इलाहाबाद में घूमने-फिरने के लिए इनी-गिनी जगहों में से एक है. उन दिनों मैं जबरदस्त इमोशनल और फाइनेंसियल क्राइसिस से गुजर रही थी … पढ़ना जारी रखें सुनो… मुझे तुम्हारी ये बातें अच्छी लगती हैं.

भागना परछाइयों के पीछे-पीछे…

छुटपन में, जब पेड़ों की परछाइयाँ धूप से लड़ते-लड़ते, शाम को थककर ज़मीन पर पसर जाती थीं, तो हम उनकी फुनगियों पर उछल-कूद  मचाते थे और कहते थे "देखो, हम पेड़ की फुनगी पर हैं"---बचपन कितना मासूम होता है, परछाइयों से खेलकर खुश हो लेता है. पर, हम अब भी तो वही कर रहे हैं---आभासी … पढ़ना जारी रखें भागना परछाइयों के पीछे-पीछे…

घर और महानगर

घर (१.) शाम ढलते ही पंछी लौटते हैं अपने नीड़ लोग अपने घरों को, बसों और ट्रेनों में बढ़ जाती है भीड़ पर वो क्या करें ? जिनके घर हर साल ही बसते-उजड़ते हैं, यमुना की बाढ़ के साथ. (२.) चाह है एक छोटे से घर की जिसकी दीवारें बहुत ऊँची न हो, ताकि हवाएँ … पढ़ना जारी रखें घर और महानगर

अवसाद-२ (साँझ की धूप)

धान के खेतों पर दूर तक फैली, थकी, निढाल पीली-पीली साँझ की धूप, आ जाती है खिड़की से मेरे कमरे में, और भर देती है उसे रक्ताभ पीले रंग से, ... ... इस उदास पीले रंग की अलौकिक आभा से मिल जाता है मेरे उदास मन का पीला रंग, और चल देता है मेरा मन … पढ़ना जारी रखें अवसाद-२ (साँझ की धूप)

अवसाद-1 (अकेलापन)

अखरने लगता है अकेलापन शाम को... जब चिड़ियाँ लौटती हैं अपने घोसलों की ओर, और सूरज छिप जाता है पेड़ों की आड़ में, मैं हो जाती हूँ और भी अकेली. ... ... मैं अकेली हूँ... सामने पेड़ की डाल पर बैठे उस घायल पक्षी की तरह, जो फड़फड़ाता है पंख उड़ने के लिये पर... उड़ … पढ़ना जारी रखें अवसाद-1 (अकेलापन)