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अपने अपने दुःख

मैं और शीतल रोज़ रात में खाने के बाद मुहल्ले के पीछे जुगनू गोली को टहलाने निकलते हैं। वहाँ लगभग रोज़ एक बुजुर्ग सरदार जी टहलते दिखते हैं। कुछ दिनों से हमारा शगल था उनके बारे में अनुमान लगाने का। उनको फोन पर बात करते देख मैं कहती कि परिवार से छिपकर घर से बाहर … पढ़ना जारी रखें अपने अपने दुःख

अकेली औरत

शीर्षक पढ़कर ही अजीब सा एहसास होता है ना? कैसे गंदे-गंदे ख़याल आ जाते हैं मन में.  "एक तो औरत, ऊपर से अकेली. कहाँ है, कैसी है, मिल जाती तो हम भी एक चांस आजमा लेते." ... ऐसा ही होता है. अकेली औरत के साथ सबसे बड़ी समस्या ये होती है कि उसे सब सार्वजनिक संपत्ति समझ … पढ़ना जारी रखें अकेली औरत

धूसर

दुनिया को जिस रंग के चश्मे से देखो, उस रंग की दिखती है. अभी धूसर रंग छाया हुआ है. जैसे अभी-अभी आँधी आयी हो और सब जगह धूल पसर गई हो या कहीं आग लगने पर धुँआ फैला हो या सूरज डूब चुका हो और चाँद अभी निकला ना हो. उम्र का तीसरा दशक होता … पढ़ना जारी रखें धूसर

नए साल का उपहार ‘सोना’

कभी-कभी लगता है कि ज़िंदगी कितनी बकैत चीज़ है. कितनी बेरहम. किसी की नहीं सुनती. कभी नहीं रुकती. लोग आयें, बिछड़ जाएँ. साल आयें, बीत जाएँ.  ये चलती ही जाती है. सब कुछ रौंदती. किसी बुलडोज़र की तरह अपना रास्ता बनाती. तो ये चल रही है. तारीखों के आने-जाने का इस पर कोई असर नहीं. … पढ़ना जारी रखें नए साल का उपहार ‘सोना’

उलझन-उलझन ज़िंदगी …

उलझन-उलझन ज़िंदगी... सुलझती ही नहीं... सुलझाने के चक्कर में हम और भी उलझते जाते हैं...एक धागा सुलझाते हैं कि कोई दूसरा उलझ जाता है. कभी हांफते, कभी थक जाते ... हम सभी अपनी उलझनों को सुलझा लेना चाहते हैं, पर ये नहीं सोचना चाहते कि ये उलझन पैदा कहाँ से हुई... सिरा ही तो नहीं … पढ़ना जारी रखें उलझन-उलझन ज़िंदगी …

वो ऐसे ही थे (1.)

इस ३० जून को उनको गए पूरे चार साल हो गए... इन सालों में एक दिन भी ऐसा नहीं गुजरा, जब मैंने उन्हें याद ना किया हो... आखिर अम्मा के बाद वही तो मेरे माँ-बाप दोनों थे. परसों उनकी पुण्यतिथि थी और मज़े की बात ये कि मैं उदास नहीं थी. मुझे उनके कुछ बड़े … पढ़ना जारी रखें वो ऐसे ही थे (1.)

उनकी ज़िंदगी के वो रूमानियत भरे दिन (2.)

हिन्दी सिनेमा का स्वर्णकाल (पचास और साठ के दशक) पिताजी के जीवन का भी स्वर्णकाल था क्योंकि वे उस समय युवा थे और नयी-नयी शादी हुयी थी. अपने खानदान क्या, पूरे गाँव में अपनी पत्नी को अपने साथ शहर लाने वाले पिताजी पहले युवक थे. नहीं तो उस समय पिया लोग कमाने रंगून और कलकतवा … पढ़ना जारी रखें उनकी ज़िंदगी के वो रूमानियत भरे दिन (2.)

उनकी ज़िन्दगी के वो रूमानियत भरे दिन (1.)

पिताजी ने पढ़ाई पूरी करते ही घर छोड़ दिया था. वे वहाँ से बाहर निकलकर कुछ करना चाहते थे और अपनी ज़िन्दगी अपने ढंग से जीना चाहते थे. गाँव की कुरीतियों और अन्धविश्वासों से उनका मन भी ऊबा  था. फिर तब खेती में बहुत श्रम करने पर भी कम आय होती थी और सिर्फ़ लोगों का … पढ़ना जारी रखें उनकी ज़िन्दगी के वो रूमानियत भरे दिन (1.)