इलाहाबाद और वेलेंटाइन डे
हमलोग इलाहाबाद विश्वविद्यालय के (W H के नाम से प्रसिद्ध) वीमेंस हॉस्टल में थे, जब हमें “दिल तो पागल है” फ़िल्म के माध्यम से “वेलेंटाइन डे” नामक वैश्विक प्रेमपर्व के विषय में पता चला। उन्हीं दिनों इलाहाबाद में पुलिस वालों ने “मजनू पिंजड़ा” अभियान चलाया हुआ था।
यह अभियान शुरू तो हुआ था लड़कियों को छेड़ने वाले शोहदों के लिए, लेकिन अपनी ज़िंदगी में ख़ुद कभी प्रेम करके कोई जोड़ा बना पाने से वंचित पुलिस वाले अपनी सारी खुन्नस और कुंठा बेचारे प्रेमी जोड़ों पर उतारते थे।
भारद्वाज पार्क, संगम, सरस्वती घाट और यहाँ तक कि कभी-कभी आनंद भवन से साथ निकलने वाले जोड़ों में से प्रेमियों को बेंत भी पड़ती थी और कभी-कभी उठाकर थाने भी ले जाया जाता था। पुलिसवाले मन ही मन में “हम नहीं खेले, तो खेल बिगाड़ेंगे” वाली ज़िद से शिकारियों की तरह घात लगाए प्रेमी जोड़ों को ढूँढ़ते थे।
उधर लड़के भी कम नहीं थे। जान हथेली पर लेकर किसी भी लड़की को गुलाब पकड़ा देने के लिए कैम्पस में घूमते रहते थे। इसीलिए अक्सर संगम का चक्कर मारने वाले हम 14 फरवरी को बाहर ही नहीं निकलते थे। क्योंकि दोस्त या प्रेमी के साथ निकलते तो उसकी जान को खतरा था और अकेले जाते तो गुलाब का फूल मिलने का। उन दिनों यह एक फूल किसी एके 47 से कम नहीं लगता था हमें।
एक बार वेलेंटाइन डे को एक हॉस्टल जूनियर, कैम्पस से क्लास करके आयी तो फूट-फूटकर रोने लगी। हमलोगों ने पूछा क्या हुआ तो बैग से गुलाब का फूल निकालकर बताया कि एक लड़के ने दिया है। हमने पूछा कि इसमें रोने की क्या बात है? तो बोली घर में पता चल गया तो?
तो दोस्तो, हम भले ही अब धड़ल्ले से प्रेम और वेलेंटाइन की बात करते हों, लेकिन हमारे ज़माने में लड़कियों के लिए प्रेम किसी आतंक से कम नहीं था।