फेसबुक, ज़िंदगी, अवसाद और आत्महत्या

पिछले एक महीने में फेसबुक की दो महिला मित्रों की आत्महत्या की खबर ने अंदर तक हिलाकर रख दिया है. समझ में नहीं आता कि ज़िंदगी से भरी, नियमित फेसबुक अपडेट्स करने वाली लड़कियों को आखिर किस दुःख ने ज़िंदगी खत्म करने को मजबूर किया होगा? वो बात इतनी मामूली तो नहीं ही हो सकती कि ज़िंदगी उसके सामने हल्की पड़ जाय. कुछ भी हो इस बात को किसी के व्यक्तित्व की कमजोरी मानकर खारिज नहीं किया जा सकता.

इस तरह की आत्महत्या की घटनाओं के पीछे अक्सर अवसाद ही उत्तरदायी होता है. और अन्य मानसिक स्थितियों की तरह ही अवसाद को लेकर हमारे समाज में तरह-तरह की भ्रान्तियाँ हैं. बहुत से लोग तो यह मान बैठते हैं कि अवसाद कोई ऐसी भयानक बीमारी है, जिससे पीड़ित व्यक्ति अजीब सी हरकतें करता है और इससे पता चल जाता है कि अवसादग्रस्त है. जबकि एक बेहद सामान्य सा लगने वाला इंसान भी अवसादग्रस्त हो सकता है. लक्षण इतने सूक्ष्म होते हैं कि उसके व्यक्तित्व में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आता. अक्सर हमारे बीच बैठा हँसता-बोलता, चुटकुले सुनाता इंसान भी अवसादग्रस्त होता है और उसके करीबी दोस्तों और रिश्तेदारों को भी यह बात पता नहीं होती. कई बार तो खुद रोगी को ही यह पता नहीं होता कि वह डिप्रेशन में है.

हम अक्सर डिप्रेशन को कमजोरी की निशानी मानकर उस पर बात नहीं करना चाहते. लेकिन मुझे लगता है कि अपना अनुभव साझा करने से कुछ लोगों को मदद मिल सकती है, खासकर उनलोगों को, जो खुद यह नहीं समझ पाते या समझकर भी मानने को तैयार नहीं होते कि वे अवसादग्रस्त हैं. मैं यहाँ इस विषय में अपना अनुभव साझा करना चाहूँगी. स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद जब मैंने एम.ए. में प्रवेश लिया था, उस समय मेरे जीवन में कुछ ऐसी परिस्थितियाँ आयीं कि मैं अवसादग्रस्त हो गयी. कारण बहुत से थे- आर्थिक संकट, दीदी, जिसने मुझे माँ की तरह पाला और जो मेरी सबसे अच्छी सहेली हैं, उनकी शादी हो जाना और पेट की लंबी बीमारी. मेस के खाने से मुझे amoebiasis नामक बीमारी हो गयी थी. उसके कारण लगभग दो-तीन साल तक लगातार पेट दर्द रहा. इलाज के बाद पेट तो ठीक हो गया, लेकिन दर्द नहीं गया. आखिर में मेरी एक मित्र मुझे एक न्यूरोलॉजिस्ट के पास ले गयीं. डॉक्टर ने कहा कि इसे डिप्रेशन है, तो मेरी मित्र आश्चर्य में पड़ गयीं. उन्होंने कहा “इतनी बैलेंस्ड लड़की डिप्रेस्ड कैसे हो सकती है?” तो डॉक्टर ने कहा कि “अक्सर बैलेंस बनाने के चक्कर में लोग डिप्रेशन में चले जाते हैं”

उस समय मुझे नहीं बताया गया था कि मुझे ऐसी कोई समस्या है. मेरे दो मित्र मनोविज्ञान की पढ़ाई कर रहे थे. उनमें से एक समर ने मेरी दवाइयों का प्रेसक्रिप्शन देखकर मुझे बताया कि ये दवाईयाँ तो डिप्रेशन की हैं. दूसरी मित्र ने बताया कि तुम्हें साइकोफिज़िकल प्रॉब्लम है. मैं यह सोचकर हैरान थी कि दिमागी परेशानी शरीर पर इतना बुरा प्रभाव डाल सकती है. मैं एक खिलाड़ी रही थी और उस बीमारी के पहले मैं कभी इतनी बीमार नहीं पड़ी थी. खैर, मुझे तभी पता चला कि मानसिक बीमारी कभी भी किसी को भी हो सकती है.

मेरे दोस्तों ने मेरा उस समय बहुत साथ दिया. मुझे कभी-कभी आत्महत्या का ख़याल भी आता था, लेकिन खुद को सँभाल लेती थी, ये सोचकर कि ये सब डिप्रेशन के कारण है और मुझे इस बीमारी से हार नहीं माननी है.. मेरे साइकोलॉजी वाले दोनों दोस्तों ने हॉस्टल की सहेलियों से कह रखा था कि मुझे एक मिनट के लिए भी अकेला न छोड़ें. ये बात मुझे बाद में पता चली. समर अक्सर मेरी काउंसलिंग के लिए बाहर मिलता था और ये बात समझने की कोशिश करता कि आखिर मुझे सबसे ज़्यादा कौन सी बात सता रही है. मेरी पेट की बीमारी के समय मेरी दो सबसे करीबी सहेलियों पूजा और चैंडी ने मेरा बहुत ध्यान रखा. उस समय दोस्तों के साथ ने धीरे-धीरे मुझे गहरे अवसाद से बाहर निकाल लिया. हालांकि दवाएँ नहीं छूटीं. मैं अब भी दवाएँ ले रही हूँ. पर उन्हें खुद ही रिड्यूस कर रही हूँ और धीरे-धीरे एक दिन ये दवाएँ भी छोड़ दूँगी.

अलग-अलग व्यक्ति के डिप्रेशन में जाने के कारण बिल्कुल भिन्न होते हैं, लेकिन सबसे प्रमुख कारण जो मुझे समझ में आता है, वह है अकेलापन. कभी-कभी दोस्तों से घिरे होते हुए भी हम बिल्कुल अकेले हो जाते हैं क्योंकि कोई भी दोस्त हमें इतना अपना नहीं लगता, जिससे अपनी बेहद व्यक्तिगत या बचकानी समस्या साझी की जा सके. कभी-कभी सारे दोस्त छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं या अपने-अपने जीवन में व्यस्त हो जाते हैं. कई बार तो पति-पत्नी भी एक-दूसरे से हर बात शेयर नहीं कर पाते.

हज़ार कारण है डिप्रेशन में जाने के, लेकिन किसी को गहरे अवसाद में जाने से रोकने का एक ही उपाय है- अपने दिल की बात साझा करना. जिन्हें लगने लगा है कि वो ज़िंदगी को लेकर निगेटिव होने लगे हैं, उन्हें दोस्तों से और परिवार वालों से बात करना चाहिए और अगर कोई नहीं है तो लिखना चाहिए-डायरी में, ब्लॉग पर फेसबुक पर या कहीं भी.

लेकिन इतना भी काफी नहीं है. ज़्यादा सावधान तो परिवारवालों और दोस्तों को होना चाहिए. डिप्रेशन के कोई प्रकट लक्षण नहीं होते, एक सायकायट्रिस्ट ही पता कर सकता है कि कोई डिप्रेशन में है या नहीं. आप सिर्फ इतना कर सकते हैं कि अपने किसी दोस्त को एकदम से अकेला न छोड़ें. खासकर उन दोस्तों को जो बहुत अधिक संवेदनशील हैं और अकेले रहते हैं. आप ये सोचकर मत बैठिये कि वे डिस्टर्ब होंगे. अगर लगता है कि कोई डिप्रेशन में जा सकता है तो उससे बार-बार बात कीजिये. भले ही वह मना करे. उसकी परेशानी का कारण मत पूछिए, बस इधर-उधर की हल्की-फुल्की बात कीजिये. उसे यह एहसास दिलाइये कि आप उसके साथ हैं.

सबसे ज़रूरी बात – अगर आपको लगता है कि आप अपनी ज़िंदगी में खुश हैं, संतुष्ट हैं, तो खुशियाँ बाँटिए. हो सकता है कि आपका कुछ समय का साथ या थोड़ी सी हल्की-फुल्की बातें किसी का बड़ा सा दुःख दूर कर दें. अपने में सीमित मत रहिये. खुद को खोलिए, इतना कि दूसरा भी आपके सामने खुद को खोलने पर मजबूर हो जाय.

27 विचार “फेसबुक, ज़िंदगी, अवसाद और आत्महत्या&rdquo पर;

  1. काश कि अवसाद के करण समझे जा सकते. परन्तु आजकल की व्यस्त से व्यस्तम जिंदगी में किसी के पास किसी के लिए भी इतना समय नहीं है. ऐसे में आस पास के लोग और मित्र ही साथ देकर कुछ मदद कर सकते हैं.
    एक बहुत जरुरी आलेख आराधना . शुक्रिया.

  2. तुम्हें पता कैसे चल गयी ये बात? कितना डर गया था मैं! ख़ासतौर पर इसलिए कि पता न चलने वाला अवसाद सबसे भयानक होता है! आप अंदर अंदर घुलते जाते हैं और आपको समस्या शारीरिक लगती है, जबकि होती अंदर है।

  3. एक बात मैंने गौर की है , वह आप सबको शेयर करना चाहता हूँ . मैं यह भी चाहूँगा की आप मेरे इस विचार को पूरे देश , पूरी दुनिया को शेयर कर दें . वह यह कि अवसाद के मरीज़ को जो दवाएं दी जाती हैं …वे दवाएं ही उस मरीज़ में आत्महत्या की भावना और ख़ुदकुशी के विचार को पैदा करती हैं …जी हाँ ..यही सच है . इसलिए अगर आपके घर या आसपास ऐसा कोई मरीज़ हो तो उसे एकदम से मनोचिकित्सक द्वारा लिखी गयी सारी की सारी दवाएं देना शुरू मत कर द्जिये . अगर डॉक्टर दिन में ३ टाइम की गोलियां लिख कर देता है तो आप मरीज़ को सिर्फ 1 टाइम ही दवाई खिलाइए …अगर डॉक्टर ३ तरह की दवाइयां लिखता है तो उसे कोई भी एक गोली ही खिलाइए /// यकीन मानिये , इससे मरीज़ का कोई नुकसान नहीं होगा ,मगर इतना याद रखिये कि मरीज़ के ” आक्रामक ‘ अंदाज़ को ठंडा करने के लिए अगर आपने उसे सारी की सारी दवाइयां खिला दिन , तो वह निश्चित रूप से आत्महत्या कर बैठेगा …यह मेरा देखा हुआ अनुभव है , इसलिए मैं जब भी एअसे किसी मरीज़ को देखता हूँ तो उसकी दवाएं कम करने की सलाह देता हूँ . अगरचे मैं कोई डॉक्टर नहीं हूँ , मगर मेरा सर्वे कहता है कि मनोचिकित्सा की दवाएं ही अच्छे भले आदमी को आत्महत्या के मार्ग पर ले जाति हैं ///

    1. मैं आपकी बात से सहमत नहीं हूँ. कोई भी डॉक्टर किसी मरीज़ के साथ इस तरह का खिलवाड़ नहीं करता. पहले तो मरीज़ को डिप्रेशन की दवा तुरंत दी ही नहीं जाती. सायकायट्रिस्ट पहले आपको किसी काउंसलर के पास भेजते हैं या दूसरे उपायों से खुद को नकारात्मकता से दूर करने को कहते हैं. फिर भी यदि ऐसा लगता है कि डॉक्टर ने ज़्यादा दवाएँ लिख दी हैं तो सेकेण्ड ओपिनियन ले लेना चाहिए.

  4. अगर आपको लगता है कि आप अपनी ज़िंदगी में खुश हैं, संतुष्ट हैं, तो खुशियाँ बाँटिए. हो सकता है कि आपका कुछ समय का साथ या थोड़ी सी हल्की-फुल्की बातें किसी का बड़ा सा दुःख दूर कर दें. अपने में सीमित मत रहिये. खुद को खोलिए, इतना कि दूसरा भी आपके सामने खुद को खोलने पर मजबूर हो जाय.
    ..एकदम सही बात कही आपने …..आजकल डिप्रेसन में बहुत लोग आ जाते हैं आवश्यकता है उनका साथ निभाने वालों की ..थोड़ा थोड़ा साथ किसी को जिंदगी जीने का मकसद दिला सकता है …
    बहुत बढ़िया प्रेरक प्रस्तुति

  5. बहुत ही उम्दा लेख है।अकेलापन सबसे बड़ा कारण है अवसाद का। खासकर अपनी व्यथा किसी से शेयर न कर पाने की व्यथा। इसलिए जिंदगी में एक ऐसा मित्र (soulmate) जरूरी है जिस से आप अपनी हर बात निःसंकोच साझा कर सकें।चाहे वह किसी भी प्रकार की समस्या हो,आपकी फंतासी हो…कुछ भी। दोस्त ऐसा जो हर बात को सुने और गुने।

    1. जी, अपने अनुभव साझा करने से बहुत से लोगों को संबल भी मिलता है और राहत भी होती है कि कोई मेरे जैसा है और अगर वो अपनी परेशानियों से उबर गया है या उबरने की कोशिश कर रहा है तो हम भी कर सकते हैं.

  6. अच्छा लगा। हर व्यक्ति के साथ ऐसा होता है। ज़रूरी नहीं कि आत्महत्या तक ही जाती हो यह राह। नौकरी छोड़ना भी आत्महत्या की जगह ले लेता है।

  7. आप ने ये नही बताया कि आप इन स्थितियों से कैसे बाहर निकल पाई । और आप के डिप्रेशन की वजह क्या थी ।
    डिप्रेशन मे ये बहुत महत्वपुर्ण होता है कि किन वजहों / सोचो / परिस्थितियों / या बेवजह* , से आप डिप्रेशन मे जाते हो ।
    दुसरा आप के आसपास का माहौल कैसा है ।
    ये एक बहुत बडी वजह होती है कि कोई व्यक्ति किन्हीं भी कारणों के बावजुद डिप्रेशन मे चला जाता है ( उन्ही सब कारणों के रहते हुये भी सिर्फ माहौल अलग होने से वही व्यक्ति डिप्रेस नही होता जबकि मौजुदा माहौल उसे डिप्रेस कर जाता है ।
    )
    मेरी नजर मे डिप्रेशन अपने विचारो / सोचो से हार की परिणीती है ।
    अब उनसे लडने के उपाय भी अलग अलग होगें ।
    डिप्रेशन का कारण और उस व्यक्ति की परिस्थीती के अनुसार रोग निदान अलग अलग होगें।
    जहॉ आप के केस मे आप के दोस्तों ने आप को अकेलापन का अहसास नही होने दिया वही कोई जरुरी नही है कि अकेलापन डिप्रेशन को बढावा दे बल्कि कई केस मे अकेलापन रोग निदान भी हो सकता है ।
    कभी कोई अपना ये आकर भी कह दे कि एक कान के नीचे खिच कर मारुगां ,क्या बेवकुफीयॉ कर रहे हो फालतु कुछ भी सोच रहे हो बेवकुफ अपना कम करो फालतु बाते ना सोचा करो ।
    बस
    ये वाक्य भी राम बान हो सकते है किसी को डिप्रेशन से निकालने मे ।
    लेकिन यही शब्द किसी दुसरे को ओर गहरे डिप्रेशन मे भेज सकते है ।
    दवाईयो ये आखरी उपाय है इलाज का या यह कहे कि कॉऊसलर को बिमारी का कारण ना समझ आया हो या वो ठिक से समझ ही ना पाया हो ।
    असल मे हमारी महत्वकांशक्षाये ही डिप्रेशन की जड है ।

    1. कभी कभी ज़िन्दगी में एक साथ इतनी परेशानियां आ जाती हैं कि व्यक्ति खुद नहीं समझ पाता कि डिप्रेशन किस बात से है? मेरे साथ यही हुआ था. शायद कारण एक नहीं था और ऐसा भी नहीं था कि उसे दूर किया जा सके, उसके साथ ही ज़िन्दगी गुजारना था.

  8. इसी समस्या को लेकर मैं आपसे व्यक्तिगत रूप से सम्पर्क करना चाहती हूँ मेरी भी ऐसी ही एक समस्या से जूझ रही हूँ क्रप्या अपना ईमेल एड्रेस बताये

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