‘अभिसारिका नायिका’ मुझे शुरू से ही बड़ी अच्छी लगती है. आधुनिक अर्थों में निडर और बोल्ड. अभिसारिका उस स्त्री को कहते हैं, जो अपने प्रिय से मिलने एक नियत ‘संकेत स्थल’ पर जाती है. कोई उसे देख न ले, इसलिए प्रायः यह समय रात्रि का होता है. लेकिन समय नियत नहीं. संकेत स्थल खेत, भग्न मंदिर, दूती का घर, जंगल, तीर्थ स्थान यहाँ तक कि श्मशान भी हो सकता है.
संस्कृत साहित्य में सम्भोग श्रृंगार के वर्णन में अभिसारिका नायिका का कई स्थलों पर वर्णन हुआ है, किन्तु मुझे अभिसरण का सबसे सुंदर दृश्य ‘मृच्छकटिक’ का लगता है. नायिका वसंतसेना, जो कि एक समृद्ध गणिका है, एक निर्धन ब्राह्मण चारुदत्त से प्रेम करती है. बरसात के मौसम में जबकि चारों ओर काले-काले मेघ छाये हुए हैं और उसके कारण तारों की रोशनी भी धरा तक नहीं पहुँच रही. मेघों के गर्जन और दामिनी के साथ मूसलाधार बारिश हो रही है. ऐसे घोर अन्धकार में वसंतसेना चारुदत्त से मिलने उसके घर जाती है.
अचानक हुए मेघ गर्जन से भयभीत वसंतसेना चारुदत्त के ह्रदय से लग जाती है. विदूषक ‘दुर्दिन’ को उपालंभ देता है कि वह नायिका को मेघ गर्जन से डरा रहा है, तो चारुदत्त उससे कहता है कि ऐसा मत कहो. इसी दुर्दिन से भयभीत होकर तो वसंतसेना मेरे ह्रदय से लगी है.
चारुदत्त कहता है-
धन्यानि तेषां खलु जीवितानि ये कामिनीनां गृहमगतानाम्।
आर्द्राणि मेघोदकशीतलानि गात्राणि गात्रेषु परिष्वजन्ति॥
-अर्थात् वास्तव में उनके जीवन धन्य हैं, जो घर में आयी हुयी कामिनियों के बादल के जल से शीतल हुए शरीरों का अपने शरीरों से आलिंगन करते हैं.
(ये विचार मुझे नुसरत फ़तेह अली खान की कव्वाली ‘है कहाँ का इरादा तुम्हारा सनम, किसके दिन को अदाओं से बहलाओगे. ये बता दो तुम इस चाँदनी रात में, किससे वादा किया है, कहाँ जाओगे’ सुनते हुए आया.)
बहुत खूब!
बढियां, मगर ये उर्दू शायरी में लिंग बोध क्यों नहीं ?
उर्दू शायरी में है, सूफी कव्वालियों में नहीं. नुसरत के गीत सूफी हैं, जहाँ एक स्तर पर जाकर लिंग भेद समाप्त हो जाता है. किसे पता परमात्मा का क्या लिंग है? क्या स्वरूप ?
वाह !
नुसरत की गायकी सुनकर भले ही यह ख़याल आया हो आपको, पर मृच्छकटिक की नायिका तो मुझे बिन बहाने ही ख़याल में रहती है। अद्बुत कृति। सबसे बड़ी बात इस छोटी-सी प्रविष्टि से आपने कईयों के मन में अभिसारिका के विचित्र अर्थों में तनिक परिष्कृत भाव भर दिया है। आभार।
हाँ, मुझे भी यह नाटक अद्भुत लगता है. पूरे नाटक को कई-कई बार पढ़ चुकी हूँ और फिर-फिर पढ़ने का मन होता है.