खुरपेंचें, खुराफातें…पीढ़ी दर पीढ़ी

जी, खुरपेंची होना हमारे बैसवारा की सबसे बड़ी विशेषता है. बड़े-बड़े लम्बरदार भी इससे बाज नहीं आते. बचपन से ऐसी खुराफातें देखकर बड़ी होने के बाद भी मैं इतनी सीधी (?) हूँ, इससे सिद्ध होता है कि वातावरण हमेशा ही आपके ऊपर ‘बुरा’ असर नहीं डालता 🙂

मेरे बाऊ के दोस्त बसंत चाचा, उम्र में बाऊ से सात-आठ साल छोटे थे और उन्हें ‘दद्दू’ कहते थे, लेकिन थे दोनों पक्के लँगोटिया यार. चाचा के तीन लड़के ही थे, इसलिए हम दोनों बहनों को अपनी बेटी की ही तरह मानते और बाऊ से ज्यादा लाड़ करते थे. अम्मा अक्सर उनकी बदमाशियों के किस्से सुनाती थीं. बाऊ कभी-कभी पान खाते थे और जब खाते, तो घंटों उसे मुँह में चुलबुलाते रहते थे. जितनी देर पान उनके मुँह में रहता था, सबकी बातों का जवाब चेहरा थोड़ा ऊपर करके ‘हूँ-हाँ-उहूँ’ में दिया जाता था. बसंत चाचा बाऊ की इस आदत से तंग रहते थे. एक दिन वो बाऊ से कुछ पूछ रहे थे और वो इसी तरह जवाब दिए जा रहे थे. चाचा को गुस्सा आया तो उन्होंने दोनों हाथों की मुट्ठियाँ बनाकर बाऊ के फूले गालों के ऊपर जड़ दिया. अब क्या था! पान की पीक चाचा की सफ़ेद कमीज़ के ऊपर. पूरी कमीज़ ‘छींट लाल-लाल’ हो गयी 🙂 चाचा को मौका मिला. दौड़कर घर के अन्दर आये और अम्मा से बोले, “देखो भाभी, दद्दू का कीन्हेंन” अम्मा गुस्से में आकर बाऊ को बडबडाने लगीं. अभी आधी पीच बाऊ के मुँह के अन्दर थी, तो बेचारे अपनी सफाई में कुछ बोल ही नहीं पा रहे थे. मुँह ऊपर करके जो भी बोलने की कोशिश करते थे, अम्मा को समझ में नहीं आता. वैसे भी अम्मा गुस्से में आती थीं, तो किसी की नहीं सुनती थीं. जितनी देर में बाऊ पान की पीक थूककर आते, उनकी क्लास लग चुकी थी. और चाचा खड़े-खड़े मुस्कुरा रहे थे.

जब अम्मा को पूरी बात पता चली, तो वो भी मुस्कुरा उठीं. अम्मा ने बड़ी कोशिश की उस पान की पीक का दाग छुड़ाने की, पर वो पूरी तरह नहीं छूटी. हल्का-हल्का दाग उस पर रह ही गया. चाचा तब भी अक्सर वो कमीज़ पहनकर घर आते थे और जब कोई पूछता कि ये दाग कैसे लगा, तो मुस्कुरा के कहते, “दद्दू पान खाकर थूक दिए रहेन”

चाचा की बहू यानी हमारी भाभी (वही जिन्होंने ‘नखलउवा’ का किस्सा सुनाया था) घूंघट नहीं निकालती थीं. कभी-कभी सर पर पल्ला रख लेती थीं बस. गाँव में अडोस-पड़ोस की औरतें इस बात से बहुत नाराज़ रहती थीं. एक दिन राजन भैय्या (चाचा के दूसरे नम्बर के लड़के यानि भाभी के देवर ) ने किसी की बात सुन ली और कहने लगे ‘हमरी भाभी कौनो पाप किये हैं का, जो मुँह छिपावत फिरैं’ ल्यो भाई इहौ कौनो कारन भवा घूंघट न करे का 🙂

तीसरी पीढ़ी यानि चाचा की पोती रूबी बड़ी प्यारी बच्ची थी. घर की इकलौती बेटी थी, सबकी दुलारी. अक्सर घर में सबलोग उसे चिढ़ाया करते थे कि “का करिहो पढ़ि-लिखि के, तुमका बटुइयै तो माँजे क है” जैसा कि आमतौर पर गाँवों में लड़कियों को चिढ़ाया जाता है. रूबी का पढ़ने में बहुत मन भी नहीं लगता था. धीरे-धीरे उसके नम्बर कम आने लगे. एक दिन चाचा ने गुस्से में आकर कहा कि ‘रूबी मन लगाकर क्यों नहीं पढ़ती?’ रूबी जी हाथ चमकाकर बोलीं, “बाबा, का करिबे पढ़ि-लिखि के, हमका बटुइयै तो माँजे क है” चाचा शॉक्ड. तुरंत घर के सदस्यों की ‘अर्जेंट मीटिंग’ बुलाई गयी और सबको अल्टीमेटम दिया गया कि आगे से किसी ने बिटियारानी को ऐसी बातें कहकर चिढ़ाया तो उसे घर से निकाल दिया जाएगा.

चाचा तो अब इस दुनिया में नहीं हैं,बाऊ के जाने से पहले ही चले गए. दस साल से भाभी और रूबी से मिलना नहीं हुआ. मैं याद करती हूँ सबको. बहुत याद करती हूँ. क्या खुशगवार मौसम था उन दिनों! हँसी-मज़ाक, टांग-खिंचाई, खुराफातें, खुरपेंचें…चाचा की आज बहुत याद आ रही है. पर इत्मीनान है कि बाऊ और चाचा दोनों दोस्त मिलकर ऊपर अम्मा की खिंचाई कर रहे होंगे और आज तो पक्का चाचा को हिचकी आ रही होगी 🙂

31 विचार “खुरपेंचें, खुराफातें…पीढ़ी दर पीढ़ी&rdquo पर;

  1. मै खुद कभी कोई संस्मरण नहीं लिखती हूं किन्तु यहाँ ब्लॉग जगत में लोगों के संस्मरण पढ़ कर बहुत अच्छा लगता है और लभग हर याद से मेरी भी कोई ना कोई याद ताजा हो जाती है | बटुवा , पाना की पिक और पान खा कर वो खास अंदाज में बोलना 🙂

  2. रश्मि रविजा दी की ई-मेल से प्राप्त टिप्पणी-
    बड़ा प्यारा संस्मरण है…ऐसी यादें अनजाने ही चेहरे पर मुस्कराहट ला देती हैं और फिर यादो की कतार चली आती है..साथ साथ…:)

  3. यादों के झुरमुट से निकाल लायी हैं खुशगवार याद …..

    एक अनुरोध …. बिखरे मोती आपको पसंद हैं पर कभी अनुभूतियों पर भी आइए …. शायद कुछ पसंद आए …
    गीत मेरी अनुभूतियाँ

  4. लगता है यह पोस्ट अप्रत्यक्षतः संतोष त्रिवेदी बैसवारिया को समर्पित है और अगर नहीं भी है तो मैं अपनी तरफ से समर्पित करता हूँ!
    इस खुर्पेचिया से ब्लॉग जगत बच जाए बस तो गनीमत समझिये !

    1. हा हा, अरे नहीं ये पोस्ट मेरे चाचा के परिवार की तीन पीढ़ियों को समर्पित है. मैं अपने ब्लॉग पर किसी ब्लॉग या ब्लॉगर से सम्बन्धित बातें नहीं लिखती. आपने अपनी ओर से इसे संतोष जी को समर्पित कर दिया ये अच्छी बात है 🙂

  5. wah…..bare majedar kisse……sachhi me khoob maja aaya…..

    aise-aise kisse hain ‘khurpench’ ke “pdhte-likhte” babla man khud me hi
    dhura-tihra raha hai……..

    yse is shabd ‘khur-pench’ ko jada ‘dimension’ nahi mila hai ……thora 19 raha to ‘mouj-maje’ tak……….aur gar kuch jada 21 ho gaya to ‘irshya-dwesh-jalan’ tak pahunch jata hai……..

    abhar cha pranam.

  6. बढ़िया पोस्ट है। देर से आने का अफसोस हुआ। खुरपेंच करने वाले कमेंट के तीर छोड़ चुके। मैं भी खूब पाना खाता हूँ और घुलाता भी देर तक हूँ। इस आदत ने मुझे कई बार मुसीबत में डाला है। एक बार तो सिनेमा हाल में सीन देख कर इतनी हंसी आई कि पूरा पीक आगे वाले छोरों पर थूक दिया। बस पिटने से बच गया वरना तो ..

  7. मेरे नाना और पिता जी दोनों पान बहुत खाते थे , लेकिन मैं यहाँ पान का किस्सा नहीं बताना चाहता | मैं उन खुशगवार पलों की बात बताना चाहता हूँ जो आज भी अकेले में याद आते हैं |
    मेरे सबसे छोटे मामा की लड़की और मैं लगभग हमउम्र हैं | बचपन में मैं जब अपने ननिहाल ऊगू(उन्नाव) जाता था तो मामा अक्सर मुझे गड्सा लेकर ये धमकाया करते था “अगर अबकी नेहा के परेसान कीन्हेओ तो एहे गड्सा से काट देब |”
    आज भी हमारे बीच ऐसी नोंक-झोंक का ही रिश्ता है | मैं उन्हें कंस बुलाता हूँ वो मुझे दानव |
    हमारे यहाँ भांजों कू मान्य माना जाता है , जब उन्हें किसी उत्सव में मुझे बुलाना भी होगा तो न्योता कुछ ऐसे देंगे-
    “अगले मंगल से रामायण बैठारी है , तुम न आयेओ , सागर(मेरा छोटा भाई) के भेज दीन्हेओ , तुम आये तो दरवाजा नईं खोलिबे |”

    सादर

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