दिल्ली पुस्तक मेले से लौटकर

हॉल नंबर बारह में घुसते ही सबसे पहले राज कॉमिक्स की स्टाल पर नज़र पड़ी और बरबस ही पूजा की याद आ गयी. अभी परसों ही उसने बज़ पर लिखा था कि उसे हावड़ा स्टेशन पर अपनी मनपसंद राज कॉमिक्स नहीं मिली तो वो बहुत दुखी हो गयी. मेरे पास उसका फोन नम्बर नहीं था नहीं तो उससे फोन करके पूछती कि ‘बताओ डियर, कितने दर्जन कॉमिक्स खरीदकर भिजवा दूँ बंगलौर’ पर अफ़सोस…

पुस्तक मेला हम दिल्ली में रहने वाले पढ़ाकू लोगों के लिए हर साल आने वाले किसी त्यौहार से कम नहीं होता. जैसे बचपन में हम दशहरे के मेले का इंतज़ार करते थे, वैसे ही अब पुस्तक मेला लगने की बात सुनते ही मन में गुदगुदी सी उठती है. एक ऐसी जगह जहाँ किताबें ही किताबें हों, किसी स्वर्ग से कम नहीं होती.  उनकी महक, उनका रंग-रूप, पन्नों की फडफडाहट से मानो बातें करती किताबें. उस पर भी अपने जैसे और पुस्तक प्रेमियों को दीवानों की तरह किताबें खरीदते देखकर कितना अच्छा लगता है, बता नहीं सकती.

मुझे इस बार भी मेले में उतनी ही रौनक दिखी जितनी कि हर बार होती है या हो सकता है वीकेंड की वजह से भीड़ कुछ ज्यादा ही थी. और सबसे अधिक उत्साहित दिखे बच्चे. कौन कहता है कि किताबों के प्रति लोगों का रुझान कम हो रहा है? सच तो ये है कि कागज़ी किताबों की जगह कभी भी इलेक्ट्रोनिक किताबें नहीं ले सकतीं. कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगता है. मुझे तो ऑनलाइन किताबों को भी प्रिंट निकलवाकर लेटकर पढ़ना ही भाता है. आश्चर्य होता है कि कैसे लोग कम्प्यूटर पर किताबें पढ़ सकते हैं. मुझे लगता है कि मेरे और किताब के बीच कोई नहीं होना चाहिए… कम्प्यूटर भी नहीं 🙂

इस बार मेले में सबसे मजेदार चीज़ लगी किताबों को एक दाम में बिकते देखकर. अनेक स्टालों पर “pick any for rs. 100/-” लिखा था, पर हिन्दी वाले खुश न हों क्योंकि ये छूट ज्यादातर अंग्रेजी और अन्य भाषाओं के क्लासिक्स पर थी. काश कि ऐसी छूट हिन्दी की किताबों पर भी होती. लेकिन चिंता की भी बात नहीं क्योंकि मैंने राजकमल पेपरबैक्स से दो किताबें खरीदीं मनोहर श्याम जोशी की ‘कुरु कुरु स्वाहा’ और ‘कसप’ सिर्फ़ ढाई सौ रूपये में. बहुत दिनों से सोच रही थी पढ़ने को, पर मुझे रिसर्च की किताबों से फुर्सत मिले तब तो साहित्य पढूँ 😦

कुछ बातों ने निराश भी बहुत किया. NBT, NCERT, CBT, प्रकाशन विभाग आदि मेरे मनपसंद सरकारी प्रकाशनों की बच्चों की किताबें जो पहले बहुत सस्ती थीं, इस बार बहुत मँहगी हो गयी हैं. सोचा था कि दीदी के बच्चों के लिए ढेर सारी कहानियों की किताबें खरीदूँगी, पर हिम्मत नहीं हुयी. सिर्फ़ दो किताबें ही लीं. और उस पर भी हर बार की तरह इस बार भी हिन्दी के प्रकाशनों की स्टालें अलग-अलग हॉलों में बिखरी हुयी थीं. मैं हर बार ये शिकायत लिखकर आती थी कि हिन्दी के प्रकाशक एक हॉल में होने चाहिए, उनलोगों ने मेरी बात नहीं मानी, इसलिए इस बार नहीं लिखा 😦

मैं किताबों की ही तरह स्टेशनरी की भी दीवानी हूँ, इसीलिये मुझे सबसे ज्यादा समय हॉल नंबर बारह में लगा. टहल-टहलकर खूब आराम से तरह-तरह की स्टेशनरी देखी, कुछ चीज़ें खरीदी भीं. दोनों हाथों में किताबें लेकर घूमते-घूमते हाथ-पैर दोनों में दर्द हो गया. और देखो तो वापस आकर सब्जी-मंडी जाकर सब्जी भी लानी पड़ीं 😦

मेरा मनपंसद हॉल
हॉल नम्बर ग्यारह: शाम की रौनक
डॉ. अम्बेडकर के सम्पूर्ण साहित्य के कुछ खंड
बच्चों के लिए

27 विचार “दिल्ली पुस्तक मेले से लौटकर&rdquo पर;

  1. सूनी-सूनी एतवारी दोपहर में ‘दिल्ली पुस्तक मेले’ से
    ताज़ा हवा का एक झोंका आया…

    GGShaikh said:

    किताबें पढ़ने की आदत ओर वांछित सहुलियत क़ाबिले-दाद.

    किताबों को लेकर तुम्हारी ताज़ा बयानी सांसों की ताज़ा-ताज़ा ब्रिधिंग सी.
    ओर अंत में मानसिक खुराक के साथ-साथ पेट-पूजा भी तो जरूरी(सब्जी-मण्डी)…

    पुस्तक मेले के कुछ फोटोग्रफ्स भी बढिया…

  2. यकीनन क़ाग़ज़ी क़िताबों की अपनी ख़ासियत है….सच कहा कि बच्चों को किताबों से प्यार होता है वह तो हम पर है कि हम उनके इस शौक को ज़िन्दा रख पाते है या नही ….

  3. hi. i happened to be there on the first day of the book fair. because i was leaving for home day after. the 100 rs offer was quite good.i picked up a v s naipaul, sudhir kakar and one or two other good poetry collections. but u r right they are all in english. hindi collection was so spread out, it took time to reach there. stationery was too expensive 😦

  4. 2 साल पहले हिंद युग्म के वार्षिक समारोह के कारण विश्व पुस्तक मेले में शामिल होने का अवसर मुझे भी मिला था। वाकई उस मेले में घूमने का अनुभव अद्भुत था। जहां देखो वहीं किताबों की भरमार। जिधर देखो वहीं नए पुस्तक का लोकार्पण..कहीं श्री नामवर सिंह दिख रहे हैं तो कहीं श्री केदार नाथ सिंह..अनाम लब्ध प्रसिद्ध साहित्यकार तो ढेरों इधर उधर घूम रहे थे। गज़ब का पुस्तक प्रेम। यह सब देखकर तभी तय कर लिया था कि अब जब कभी दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला लगेगा, पहुंचुगा जरूर। यह दिसम्बर में न होता है…? समय रहते बता दीजिएगा।
    आपकी इस पोस्ट को पढ़कर, किताबों को देख कर मन रोमांच से भर गया।

  5. मुझे फ़्लिपकार्ट(www.flipkart.com) से अच्छा डिस्काउंट कहीं नहीं मिला। पिछले पुस्तक मेले से काफ़ी किताबें खरीदीं थीं इस बार भी जाना था लेकिन सिर्फ़ नाम नोट करने। आकर मैं खरीदता फ़्लिपकार्ट से ही। 🙂
    कुरु कुरु स्वाहा (नाम कर्टसी दर्पण) मैंने पढी थी और सोचा था कि जब तुमसे मिलना होगा तो तुम्हे ’पढने’ को दूंगा 🙂 अज्ञेय के शिष्य जोशी जी ने ’शेखर एक जीवनी’ की तर्ज़ पर ही इसमें तीन-चार भाषाओं का प्रयोग किया है जिसमें संस्कृत भी है और संस्कृत वाले टुकड़े, संस्कृत अच्छे से न आने की वजह से जैसे बहुत करीब आकर भी अछूते रह जाते हैं, (हालांकि कुरु कुरु स्वाहा की शैली और कंटेंट की तुलना किसी से भी नहीं कि जा सकती|) मैंने सोचा था कि संस्कृत वाले टुकड़े तुमसे समझ लिये जायेंगे 🙂
    आजकल ’कसप’ ही चल रही है. थोडी धीरे जरूर चल रही है लेकिन चल रही है…

  6. कुरुकुरु स्वाहा तो अभी पढ़ने का मौका नहीं मिला। लेकिन कसप के लिए ऊपर राहुल सिंहजी ने सही लहा, बस आप एक बार इसे पढ़ना शुरु करें बाकी समय निकालना इस किताब को अच्छी तरह आता है।
    🙂

  7. कुरुकुरु स्वाहा तो अभी पढ़ने का मौका नहीं मिला। लेकिन कसप के लिए ऊपर राहुल सिंहजी ने सही कहा, बस आप एक बार इसे पढ़ना शुरु करें बाकी समय निकालना इस किताब को अच्छी तरह आता है। 🙂

  8. अपन जा नहीं सके…सच में कामकाजी मजदूर बने हुए थे..वैसे एक बात बताउं..काफी पहले किताबों के मेलों में जाने के बाद जाना छोड़ दिया था…क्योकि किताबों कि कीमतें बिना वजह 200-300 देख कर मन नहीं करता था खरीदने को…लगता था किताबें सिर्फ पैसों वालों के लिए लिखी गईं हैं..फिर प्रेमचंद पढ़ा स्कूल के पाठ्यक्रम से अलग…तब विचार बदले..पर बचपन में किताबों कि कीमत देखकर मन मे जो ठान था…वो पूरी तरह से मिटा नहीं है..अब भी पूरानी किताबों की दुकान के चक्कचर काटने से खुद को रोक नहीं पाता…भले ही 200-400 कि किताबें अब पहुंच में आसानी से हो गई हो…

  9. शुक्रिया. पुस्तक मेले की सैर करने का.यह बात इस बार मैंने भी महसूस की .कि हिंदी के पाठक बहुत हैं और किताबें खरीद कर पढ़ना चाहते हैं .परन्तु उन्हें हिंदी की किताबें सहज उपलब्ध नहीं होतीं .और हमारे देश के पब्लिशर कहते हैं कि हिंदी की किताबें बिकती नहीं हैं.अरे जब अच्छी किताबें छापोगे नहीं, बेचोगे नहीं तो बिकेंगी कैसे?

  10. कुछ पुस्तक मेलों का ही प्रताप है कि कम से कम डेढ़ सौ अनपढ़ी या अधपढ़ी पुस्तकें अलमारी में जमी हैं. मुश्किल से आदत पर कुछ काबू पाया था, अब फ़्लिपकार्ट वगैरह की लत होने लग पड़ी है. बड़ी मुसीबत है.

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