मैं, मेरा दोस्त, कॉफ़ी और इलाहाबादी जोड़े : दो दृश्य

जो लोग मेरा ब्लॉग पिछले कुछ दिनों से पढ़ रहे हैं, उन्हें ये टॉपिक अटपटा ज़रूर लगेगा, पर मैं उन्हें आश्वस्त कर दूँ कि अम्मा-पिताजी पर मेरी श्रृँखला आगे की पोस्ट में चलती रहेगी. ये विषय परिवर्तन दरअसल, न्यायालय के एक फ़ैसले और एक विवादित फ़िल्म पर आजकल चल रही बहस के कारण हुआ है. यह पोस्ट इलाहाबादी प्रेमी जोड़ों से सम्बन्धित दो दृश्यों के बारे में है. टॉपिक में लिखीं बातें दोनों दृश्यों में कॉमन हैं.

पहला दृश्य (स्थान इलाहाबाद के कॉफ़ी हाउस का फ़ैमिली कैबिन, सन २०००)

मैं और मेरा एक वामपंथी दोस्त ( वामपंथी है ये इसलिये बताया कि आप आने वाले दृश्य पर उसकी प्रतिक्रिया से चौंके ना) इलाहाबाद के सिविल लाइन्स स्थित कॉफ़ी हाउस में एक कप अच्छी कॉफ़ी की प्यास में पहुँचे. फ़ैमिली केबिन हम इसलिये चुनते थे कि एक तो वहाँ शोर कम होता है, दूसरे मेन हॉल में अक्सर मेरे एक रिश्ते के जीजाजी अपनी बैंक मण्डली के साथ पहुँच जाते थे और मैं उनका सामना नहीं करना चाहती थी. हम दोनों के वहाँ बैठने के बाद एक जोड़ा बाइक से पहुँचता है और कोने की टेबल पर कब्ज़ा जमा लेता है. उनकी टेबल ठीक मेरे सामने थी. वो दोनों आमने-सामने बैठे थे. थोड़ी देर बाद लड़का, लड़की के बगल वाली चेयर पर बैठ जाता है.

मैं और मेरा दोस्त अक्सर मार्क्सवाद, क्रान्ति, धरना, आन्दोलन, नारी-सशक्तीकरण जैसे मुद्दों पर बौद्धिक बहस करते थे, जैसा कि बुद्धिजीवी लोग कॉफ़ीहाउसों में बैठकर किया करते हैं. मैं भी वामपंथी हूँ, पर हिंसक क्रान्ति की विरोधी. मैं उससे कहती थी कि भारत में कभी क्रान्ति नहीं हो सकती क्योंकि यहाँ उस तरह का वर्ग-संघर्ष नहीं है, जैसा क्रान्ति के लिये अपेक्षित है. मेरे दोस्त के अनुसार आज नहीं तो पचास साल बाद क्रान्ति होगी ही. इधर हम दोनों के बीच गर्मागर्म बहस चल रही थी और मेरी नज़र बार-बार उस जोड़े पर जा अटकती थी और अटके भी क्यों न वो दोनों दुनिया से बेखबर चूमाचाटी में लगे हुये थे. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि उन दोनों के दुस्साहस की प्रसंशा करूँ या बेशर्मी की निन्दा.

मेरे दोस्त ने मुझसे मेरे उधर देखने का कारण पूछा, तो मैंने उसे बता दिया और  कहा  कि सार्वजनिक स्थान पर ऐसी हरकत अच्छी लगती है क्या? उसने कहा कि “जब समाज में इन लोगों को प्रेम करने के लिये स्पेस नहीं मिलेगा तो ये ऐसी जगहों पर करेंगे. इन्हें रोका तो जा नहीं सकता. टीनएजर्स हैं. प्रेम इनकी स्वाभाविक आवश्यकता (नैचुरल नीड) है.” मैं अपने दोस्त की बात से थोड़ी तो सहमत थी, पर पूरी तरह से नहीं. उनकी हरकतें मेरा ध्यान खींच रही थीं. आखिर मेरा दोस्त झुँझला गया “क्या यार!! कुंठित लोगों की तरह बार-बार उधर देख रही हो” मैंने उससे कहा “अच्छा तुम मेरी जगह पर बैठ जाओ” जब हमने जगह बदल ली, तो जाकर मुझे चैन आया. मेरे दोस्त ने एक बार भी उधर नहीं देखा.

दूसरा दृश्य ( स्थान- आनन्द भवन के सामने स्थित चाहत रेस्टोरेंट, सन- २००४–ठीक चार साल बाद)

मेरा दोस्त एम.ए. करने के बाद जे.एन.यू. चला आया था और मैं इलाहाबाद से रिसर्च कर रही थी. उन दिनों वो इलाहाबाद आया हुआ था, तो मुझसे मिलने चला आया. हमारे पास ज्यादा समय नहीं था, इसलिये हमलोग पैदल टहलते हुये “चाहत” पहुँच गये. इलाहाबाद में सिविल लाइन्स और यूनिवर्सिटी के आस-पास के माहौल में ज़मीन-आसमान का अन्तर है. सिविल लाइन्स का माहौल महानगरीय है तो यूनिवर्सिटी के चारों ओर का कस्बाई.  हमलोग जब इलाहाबाद में नये-नये आये थे, तो किसी लड़की को लड़के के साथ देखकर सीटियाँ बजने लगती थीं.

रेस्टोरेंट में हमलोगों ने कॉफ़ी ऑर्डर की हालांकि वो बहुत बेस्वाद थी, पर हमें बात करने के लिये कुछ तो मँगाना ही था. थोड़ी देर बाद मेरे दोस्त ने मुझसे कहा कि उसे आश्चर्य हो रहा है कि इस रेस्टोरेंट में इतने प्रेमी जोड़े बैठे हैं और वो भी सटकर, कंधों पर बाँहें रखे, कोई संकोच नहीं, कोई डर नहीं. मैंने उसे बताया कि इधर चार सालों में माहौल काफी बदल गया है. अब ये जगह तो समझो इन्हीं लोगों के नाम हो गयी है-“चाहत-चाहने वालों की जगह” .

जी हाँ, माहौल बहुत बदल गया है. अपने आप या फ़िल्मों और टी.वी. के प्रभाव से, सही या गलत, कुछ नहीं कहा जा सकता. प्रेम पहले भी किशोरावस्था के लोग करते थे और अब भी. फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि वो डरते थे, आज की पीढ़ी निडर है. वो शर्माते थे, आजकल के बच्चे शान से बताते हैं कि उनके कितने ब्वॉयफ़्रैंड या गर्लफ़्रैंड रह चुकी हैं. पहले के लोग दब्बू होते थे, आज की पीढ़ी दुस्साहसी.

मेरे दोस्त ने इन दोनों दृश्यों की तुलना करते हुये अपने मन मुताबिक निष्कर्ष निकाल लिया और बोला, “याद है, एक बार कॉफ़ी हाउस में तुम्हें ऐसी ही एक घटना देखकर कोफ़्त हो रही थी. आज तुम कितनी सहज होकर बैठी हो. चार साल में इतना कुछ बदल गया है, तो आने वाले दिनों में क्रान्ति क्यों नहीं हो सकती?”… … आप चाहें तो कोई और निष्कर्ष भी निकाल सकते हैं. मैंने तो बस अपनी बात कह दी.


28 विचार “मैं, मेरा दोस्त, कॉफ़ी और इलाहाबादी जोड़े : दो दृश्य&rdquo पर;

  1. सतत परिवर्तन दुनिया का नियम है। क्रांति तो अवश्यंभावी है। वह होगी तो आवाज भी होगी और धुआँ भी उठेगा। यह न होगा कि चुपचाप हो जाए और पता न लगे।

  2. भई, इलाहबाद से मेरी कई यादें जुडी हैं. जीवन की सबसे अच्छी… और जीवन के सबसे बुरी.

    मेरे कई पक्के दोस्त इलाहबाद के ही हैं.

    और विश्वविद्यालय में थोडे दिन क्या पढ़ा, रिश्ता इलाहबाद में ही हुआ.

    साइकिल से हर रोज अल्लापुर से विश्वविद्यालय, वहाँ से आई.ई.आर.टी., फिर ममफोर्डगंज, सिविल लाइन्स, यह कोना, वह कोना.. सारा शहर छान मारता था हर दिन.

    लड़का-लड़की साथ क्या दिखे, तुरंत ‘ऑक्सफोर्ड आफ दी ईस्ट’ में कोहराम मच जाता था. इसे ‘ओर्थोडोक्स आफ दी ईस्ट’ बननें में क्षण भर भी नहीं लगता था. और अगर शहर के किसी अन्य कोने में ‘दिखे’ तो उस समय सिटी-वीटी नहीं, थप्पड-जूते चलते थे.

    आज के इस पोस्ट नें पता नहीं कितनी ही वो यादें ताज़ा कर दीं.

    1. ओह, आपका भी इलाहाबाद से नाता है. लगता है ब्लॉगजगत में आधे से ज्यादा इलाहाबादी हैं, चाहे हिन्दी ब्लॉग्स हों या अंग्रेजी. …हाँ, अब वहाँ का माहौल काफी बदल गया है, कुछ लोगों की मानसिकता तो कभी नहीं बदलती.

  3. मैं, मेरा दोस्त, कॉफ़ी और इलाहाबादी जोड़े : दो दृश्य
    http://views24hours.com/image-of-the-day.php?id=37

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    सादर..

  4. हम्म बदलाव तो अवश्यम्भावी है….बस देखना है कितना और क्या क्या बदलता है..यह तो बिलकुल सही कहा, .नयी पीढ़ी बहुत ही निर्भीक है…मुंबई में ऐसे दृश्य तो आम हैं…पर बिल्डिंग के किसी लड़की/लड़के को बिल्डिंग के आस पास ही बिंदास अपने बॉयफ्रेंड/गर्ल फ्रेंड के साथ रोज़ घूमते देख… एक बार तो यह ख़याल आ ही जाता है कि सारे जान पहचान वाले उन्हें यूँ देख रहें हैं….उन्हें जरा भी संकोच नहीं…पर इनकी डिक्शनरी से यह शब्द कब का गायब हो चुका है.

    इलाहाबाद में आया बदलाव तो तुमने बता दिया. जो लोग सालों पहले वह शहर छोड़ चुके हैं, वे रु-ब-रु हो गए होंगे वहाँ के माहौल से….काश कोई पटना के बारे में भी लिखता…क्या क्या बदला है वहाँ…लड़कियों के ग्रुप को तो एक आइसक्रीम पार्लर में विशुद्ध अंग्रेजी में बतियाते देख,एक पल को लगा,मुंबई में ही हूँ…(सारी लडकियां पुणे से छुट्टियों में गयी हुई थीं)…पर वैसे दृश्य नहीं गुजरे अब तक,आँखों के सामने से.

  5. जब दायरा बढता है तो शुरुआत मे कम्फ़र्ट ज़ोन से बाहर आना मुशकिल होता है लेकिन धीरे धीरे आप उसमे डूब जाते हो.. बदल जाते हो.. मै एक ऐसे ही भारत की कल्पना करता हू जहा महिलाये जी सकेगी.. खुशी खुशी.. इन्डिपेन्डेन्ट..

    बदलाव आ रहा है.. शायद थोडा स्लो है.. लेकिन आ रहा है..
    आमीन..

  6. बाकी देश को क्रान्ति से ज्यादा कुछ जागरुक महिलाये चाहिये जो बाकियो के बारे मे भी सोचे और जो उन्होने फ़ेस किया है, उन सबसे बाकियो को बचाये..

  7. जाने क्यूँ तुम्हारा ये वामपंथी दोस्त मुझे जाना पह्चाना सा लग रहा है. और हाँ, तुम्हारे उस दोस्त का क्रांति और क्रांति की अवश्यम्भाविता पर अब भी उतना ही विश्वास है.

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        प्रिय समर,

        आपके इस अटल विश्वास को सलाम !

        एक दौर था… हम भी पढ़ते थे इलाहाबाद में… क्रांति और क्रांति की अवश्यम्भाविता पर विश्वास लिये हुऐ… पर चूर-चूर हो गया यह विश्वास… मेरे निम्न-मध्य वर्गीय परिवार की अपेक्षाओं और मजबूरियों तले… मैं एक सामान्य मध्यवर्गीय बन गया… पर आज जब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो कभी-कभी लगता है सही ही किया… किनसे क्रान्ति की उम्मीद करते थे हम लोग?… कौन होता इस क्रान्ति का वाहक?… किसके लिये होती यह… क्रान्ति के लिये जिन्दा कौमें चाहिये होती हैं… और हम एक जिन्दा कौम तो नहीं ही हैं… मरी कौमें क्या बगावत की आवाज बुलंद कर सकती हैं?

        हो सकता है आप का मत भिन्न हो मुझसे… पर आज आपके विश्वास को देखकर एक उम्मीद तो जगती ही है… इसी उम्मीद के भरोसे सोऊंगा आज… बिना नींद की गोली लिये…

        एक बिना लड़े ही हारा हुआ आदमी , जिसे आज भी लड़ाई की प्रतीक्षा है!

  8. रोचक संस्मरण! अब लोग अपने को अभिव्यक्त करने में ज्यादा उदार हो रहे हैं। सिनेमा कहें या मीडिया या बाजार के चलते- प्यार को वक्त करने में लोगों का संकोच कम हुआ है।

    क्रांति के बारे में मैं बहुत कुछ आप जैसा सोचता हूं।

  9. इलाहबाद ,मेरा ननिहाल गर्मी के दो महीने वही गुज़ारे हैं हमेशा …वहां तो चौक से रिक्शे से गुज़रते हुए भी घबरा जाते थे कब कौन हाँथ मारता हुआ गुज़र जाए ..
    अभी पिछले साल जाना हुआ लम्बे अंतराल के बाद काफी परिवर्तन देखने को मिले …पर सोच बहुत बदलनी बाकी है

  10. क्या सचमुच इतना बदल गया इलाहाबाद ?-आई कांट बिलीव इट -हाँ मुझे अपनी एक कहानी की याद जरूर आ गयी जब मुख्य पुरुष और महिला पात्र ने काफी हाउस में बैठ काफी पीने के बहाने बतियाया था -कहानी का नाम था -सम्मोहंन .
    अब रही आपके संस्मरण की बात तो आप तो आज भी बहुत कंजर्वेटिव हैं -और मैं भी सार्वजनिक स्थलों पर चूमा चाटी का कतई पक्षधर नहीं -आखिर प्रेम की अपनी एक गरिमा होती है -यह तो मनुष्य का गोपन व्यवहार है और सुरुचिपूर्नता तथा निर्जनता की मांग करता है -निर्लज्जता की नहीं! ऐसे कृत्यों से प्रेम की उदात्तता खुद शर्मसार होती होगी -आईए देखें हमारे दूसरे नामराशि क्या कहते हैं -क़िबला वे तो अभी नवयुवा और जवान हैं !

  11. मैं कन्ज़र्वेटिव नहीं हूँ. हाँ, थोड़ी संकोची और इन्ट्रोवर्ट हूँ. बस, वही बात कि प्रेम का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं अच्छा लगता, जहाँ लोग उसे दूसरी तरह से लें. विदेश में यही खराब नहीं लगेगा. पर अगर मेरी बात हो, तो मैं वहाँ भी ऐसा नहीं करूँगी. ये मेरी बात है, पर अगर और लोग वहाँ ऐसा करें, तो मुझे बुरा नहीं लगता.
    हाँ, अरविन्द महाशय जाने कहाँ हैं. वो तो पहले से ही न्यायालय के लिव इन और प्री मरिटल सेक्स वाले फ़ैसले से बेहद नाराज़ हैं. उसके खिलाफ़ याचिका दायर करने की सोच रहे हैं. देखिये क्या होता है?

    1. मैं कन्ज़र्वेटिव नहीं हूँ. हाँ, थोड़ी संकोची और इन्ट्रोवर्ट हूँ. बस वही बात कि प्रेम का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं अच्छा लगता…

      आप अपने इस कथन को कहीं इन्फीरियर वे में तो नहीं ले रहीं ….ये सहज भाव हैं … ऐसा सोचना स्वाभाविक है और होना भी चाहिए …. आधुनिकता की अंधी दौड़ में भी अश्लीलता और खुलापन असभ्यता ही कहा जाएगा …

      1. मैं कन्ज़र्वेटिव नहीं हूँ” ये अरविन्द जी की बात का जवाब है. उन्होंने कुछ बातों के चलते मुझे ऐसा कहा था. लेकिन कन्ज़र्वेटिव तो प्रेम को भी वर्ज्य मानता है, मैं नहीं. प्रेम और उसकी अभिव्यक्ति दोनों ही स्वाभाविक बातें हैं, पर उसका सार्वजनिक प्रदर्शन कुछ लोगों के लिये ग्राह्य हो सकता है, मेरे लिये नहीं.
        किस करने या कन्धे पर हाथ रखकर या हाथ में हाथ लेकर घूमने को अश्लीलता नहीं कहा जा सकता. यह स्थान-स्थान पर निर्भर करता है. ये प्रेम का उन्मुक्त प्रदर्शन है, जो मैं अपने लिये सही नहीं मानती दुनिया करती है तो करती रहे. अभी इलाहाबाद ऐसे शहर इतने आगे नहीं बढ़े हैं कि किसी में सार्वजनिक स्थान पर अश्लील हरकत करने का साहस पैदा हो जाये. हाँ आज की पीढ़ी प्रेम की अभिव्यक्ति में अधिक खुली हुई है.

  12. आराधना जी,
    आपने बहुत सही लिखा है…यह तो रेस्टोरेंट की बात है …यह सब अब तो पार्क.,आस पास की सड़कों और तो और यदा कदा मन्दिरों एवं शापिंग माल में भी दिखाई देते हैं ।आश्चर्य इस बात का है कि हम यह सब देखने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं । परिवर्तन बहुत तेजी से आ रहा है ..इसे रोक पाना अब शायद ही संभव हो क्योंकि कानून भी अब सब कुछ लीगल बनाने में लगा है….आपने यह लेख लिख कर इस ओर ध्यान आकर्षित किया है …साधुवाद…
    दो पंक्तियां प्रस्तुत हैं……..लेबल लगा के प्यार को बाज़ार कर दिया,
    यह इश्क है ज़नाब इश्तहार नहीं करते।
    प्रेम दिखावे का मोहताज नहीं हैजो ऐसा करते हैं वो प्यार नहीं एक दूसरे को छलते हैं…..शेष फिर कभी….

    डा.रमा द्विवेदी

  13. आराधना जी इस पोस्ट को पढ़ कर तो यकीन नहीं होता ! लेकिन करना पड़ेगा कि इलाहाबाद इतना बदल गया है … पूरा इलाहबाद आँखों में घूम गया … कोफ़ी हाउस, पैलेस सिनेमा, उसके बगल में मालवीया के डोसे,बालसन चौराहा से लेकर हाथी पार्क और कंपनी बाग (अल्फ्रेड पार्क)… इधर मेरा इलाहाबाद जाना हुआ तो मैंने देखा कि इलाहाबाद मॉल और मैकडोनाल्ड्स के शहर में बदल चुका है … और ये परिवर्तन सिर्फ भौतिक और आर्थिक ही हों ऐसा तो नहीं होता, ज़रूर मानसिक परिवर्तन भी हुआ है इलाहाबाद का, इलाहाबाद विश्वविद्यालय का पढ़ा हुआ हूँ, होता उस समय भी सबकुछ था… किन्तु इतना खुलापन तो नहीं देखा कभी… विश्वविद्यालय की एक घटना मुझे याद आती है जब किसी लड़की को लेकर दो गुटों में बम(इलाहाबाद का फेवरिट अस्त्र) बज गए और लड़की को पता भी नहीं…
    ….. मै तो एक चीज़ अनुभव करता हूँ कि आज का युवा भारत नैतिक मूल्यों के संक्रमण काल से गुजर रहा है और इस विषय में कहीं न कहीं दिशाहीन है … प्रवीण जी की उक्तियाँ भी उचित ही लगती हैं -एक बिना लड़े ही हारा हुआ आदमी…. किसी अन्य परंपरा या मूल्यों का अंधानुकरण अपने आत्म विश्वास की कमी और अपने मूल्यों के प्रति हीनता का ही परिचायक है… क्रान्ति के लिए भी बहुत बड़े आत्म विश्वास की आवश्यकता होती है … आत्म विश्वास की कमी कुंठा को जन्म देती है …..और कुंठा क्रांति नहीं भटकाव ही लाती है …
    शेष तो समय ही सब से बड़ा गवाह है ………

  14. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़े हुए पाठक ज़रूर जानते होंगे कि विश्वविद्यालय में डाकखाने के पीछे पोलिटिकल साइंस के सामने और हिन्दी डिपार्टमेंट के पीछे का जंक्शन पॉइंट को P.M.C. (इस मिलन चौराहे का फुल फ़ार्म खुद ही सोचें) कहा जाता था …जहां अक्सर लड़के और लड़कियां मिलते और बात करते देखे जाते थे ….. ये रास्ता साइकोलोजी डिपार्टमेंट होते हुए लड़कियों के हास्टल को जाता था …. लेकिन कभी इस तरह की अश्लीलता देखने को नहीं मिली ….. तो क्या समझें कि कल को ये (कु)संस्कृति गावों तक को अपने चपेट में ले लेगी….??

    1. पी.एम.सी. के बारे में जानती हूँ, अश्लीलता भले न होती हो, पर हमलोगों का वहाँ से गुजरना मुश्किल हो जाता था. भाई लोग इतने कमेंट करते थे कि पूछो मत. अब लड़के-लड़कियाँ साथ दिखते हैं, पर उतने कमेंट नहीं मिलते.

  15. बहुत बदल गया है वक़्त ! इलाहाबाद ही नहीं, हर आबाद शहर बदल गया है !

    बहुत दिन नहीं हुए…आनन्द भवन के सामने ही तो रेस्टोरेंट में बैठ कर चले आये थे हम .. मैं और अमरेन्द्र ! वो ऐसी जगह है 🙂

  16. Aradhna,

    Allahabad badlaa hi nahi bahut badal chuka hai. Jin cheejon ke bare me hum sochte bhi nahi the.. aaj na sirf log karte hain balki profess bhi karte hain. Looking at dismay of people on such simple expression I am sure no one would like to believe if I say that in Allahabad there are so many Sex rackets too. Pehle hum prem ke pressure me bazaar jate the.. ab shaayad baazaar ka pressure hame prem karne ko nimantran deta hai.

    After my long stint with media I preferred to quit… and most importantly I am back to Allahabad… Hope this would help other believe me.

    keep writing..

    – Shashi

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