(जुलाई १९९९ का कोई दिन)
दीदी की शादी के बाद दो महीने तो मैं घर पर ही रही. गर्मी की छुट्टियाँ थीं. पर जुलाई में यूनिवर्सिटी जाना ही पड़ा. बाऊ जी बिल्कुल अकेले पड़ गए. दशहरे की छुट्टियों में जब घर गयी तो देखा रसोई में बैठकर बर्तन माँज रहे हैं. जाने उस दिन मुझे कैसा लगा? मैं एक पल के लिए भी वहाँ रुक नहीं सकी और हमेशा की तरह उनके पैर छूने के बजाय सीधे कमरे में चली गयी.
मेरे आने की खबर तो उनको थी ही. आहट से समझ गए कि मैं ही हूँ. बर्तन धोते हुए पूछा, “गुड्डू, क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है?”मैं अपना रोता हुआ चेहरा उन्हें नहीं दिखा सकती थी… बोली “ज़रा पीठ में दर्द हो गया है … बस में बैठे-बैठे” मैं अपने आप को कोस रही थी. क्या पढ़ाई कर रही हूँ मैं? ये कैसी पढ़ाई है? उसका क्या फायदा जब अपने बाऊ को आराम न दे पाऊँ?… वो भी कितने बदकिस्मत हैं, तीन-तीन बच्चों के होते हुए बुढ़ापे में अपने हाथ से खाना बनाना पड़ रहा है… जिस व्यक्ति ने कभी एक कप चाय तक न बनाई हो अपनी शादी के बाद से, उसे आज घर का सारा काम करना पड़ रहा है और वो भी उम्र के छठे दशक में… पर वो तो एक नंबर के स्वाभिमानी… चाचा-चाची ने कितना कहा पर उन्होंने उनके घर खाने के बजाय खुद बनाने का निर्णय लिया… अजीब आदमी हैं.
“चाय बनाएँ ?” वो सामने दरवाजे पर थे. शुक्र है कि अन्धेरा गहरा हो चला है, नहीं तो मेरे आँसू देखकर एक लंबा-चौड़ा लेक्चर पिलाते. “नहीं बाऊ, हम बना लेंगे” फिर चाय पीते-पीते उन्होंने गाँव-जवार की सब ख़बरें सुना डालीं. माहौल हल्का करना चाहते थे शायद. घर कितना सूना-सूना लग रहा था… दीदी के बिना पहली बार इस घर में… कितना अजीब सा माहौल था… बहुत अजीब. मैं कमरे की चीज़ों को देख रही थी. सब पर धूल की एक मोटी परत जमी थी. बाऊ ताड़ गए कि अति सफाई पसंद इस लड़की को चिढ़ हो रही होगी, गुस्सा रही होगी, जैसा कि हमेशा करती थी … धूल का एक कतरा देखा नहीं कि जुट गयी सफाई में… “परसों आँधी आयी थी ना…” उन्होंने सफाई दी, पर मुझे गुस्सा नहीं, रोना आ रहा था और ठीक सामने बैठे बाऊ से छिपाना भी था, “लगता है कि आँख में कुछ पड़ गया है” … बाऊ कितने बूढ़े लगने लगे हैं इन दो महीनों में. लगता है अकेलापन साल रहा है. उम्र के इस पड़ाव पर जीवन संगिनी की कमी सबसे अधिक खलती है… काश अम्मा होतीं!
सोचा था कि ढेर सारी बातें करूँगी, पर कुछ बोलने की इच्छा नहीं हो रही थी. खाना बनाते समय भी बोले, “लाओ सब्जी काट दूँ.” मुझे अच्छा नहीं लगा… बिल्कुल नहीं. मुझे घर ही अच्छा नहीं लग रहा था. मन कर रहा था कि कहीं दूर भाग जाऊँ या कुछ ऐसा करूँ कि बीते दिन लौट आयें, जब छुट्टियों में मैं और मेरा भाई घर आते थे और दीदी से हॉस्टल की बातें शेयर करते थे. या उससे भी बहुत पहले, जब हम रेलवे कालोनी में रहते थे. औरतें बरामदों में बैठकर बातें करती थीं और बच्चे सामने की खाली जगह में खेला करते थे. पर कहाँ लौट सकता है वो सब? और लौटा भी नहीं… खोता गया एक-एक करके.
सबका जाना और हमदोनों का रह जाना, सब बर्दाश्त कर लिया. पर सच, अपने पिता को बुढाते देखना ज़िंदगी का सबसे बुरा अनुभव होता है. जिन उँगलियों ने आपको पकडकर चलना सिखाया वो अब अखबार पढते हुए कांपती हैं… जिन हाथों ने हमें सहारा दिया, अब उनमे एक सोंटा होता है… छह फिट लंबा भारी-भरकम शरीर सिकुड़कर आधा हो गया है… गोरे-चिट्टे लाल चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गयी हैं…
वो दिन अटक सा गया है… आँखों में… करक उठता है रह-रहकर. लोग कैसे छोड़ देते हैं अपने माँ-बाप को? मुझसे तो उनके जाने के सालों बाद भी यादें नहीं छूटतीं, पल-पल गहरी होती जाती हैं, साफ होती जाती हैं… मैं अपने अम्मा-बाऊ की फोटो मेज पर कभी नहीं लगाती, फोटो में वो लोग पराये से लगते हैं और तस्वीर पर धूल की परत जम जाती है. यादों के फ्रेम में जड़ी तस्वीरें कभी धुँधली नहीं पड़तीं… आज शायद फादर्स डे है, पर मेरे लिए रोज ही होता है क्योंकि कोई ऐसा दिन नहीं होता, जब उन्हें याद ना करूँ.
Since my mother’s demise [2007], my dad is facing the same. He is diabetic, suffering from benign hyperplasia of prostate and renal stones as well. He has to cook before he can put a morsel in his mouth. At times we daughters are so helpless .
दिल को छु गया ये आलेख.
मेरे पास शब्द नहीं है कहने को, बस इतना कहूँगी की बहुत सुन्दर प्रस्तुति है.
आप रुलायेंगी मुझे…मां-पापा अकेले रहते हैं देवरिया में…जब पापा को देखता हूं आटा पिसाकर लौटते या…
कुछ नहीं लिख पाउंगा
ओह! बेहद मार्मिक
गला रूंध सा जाता है विचलित कर देने वालीं ऐसी बास्तविकताओं पर
मैं भी आपके पिता सा ही स्वाभिमानी हूँ. यह कोई ईगो नहीं है या कोई घमण्ड नहीं. यदि वे चाचा के यहाँ खाने लग जाते तो कभी चाचा या चाची कोई बात सुना देते तो…. यह असह्य होता. स्वयं बनाने से चाची-चाचा भी सम्मान से पेश आयेंगे. अपना सम्मान बड़ी चीज है, साथ ही यह अहसास कि मैं किसी पर बोझ नहीं हूँ, बहुत बड़ा सुख है.
अपने घर में कच्चा-पक्का भी बने तो वही अच्छा है, इसमें भी एक प्रकार का सुख है. 🙂
गुड्डू दीदी ! मैं सोच रहा हूँ कि क्या मेरे पापा-मम्मी भी बूढ़े होंगे !!!
लगता तो नहीं !!!
क्या मुझे उनके लिए कुछ करना चाहिये.
मैं भी आपके पिता सा ही स्वाभिमानी हूँ. यह कोई ईगो नहीं है या कोई घमण्ड नहीं. यदि वे चाचा के यहाँ खाने लग जाते तो कभी चाचा या चाची कोई बात सुना देते तो…. यह असह्य होता. स्वयं बनाने से चाची-चाचा भी सम्मान से पेश आयेंगे. अपना सम्मान बड़ी चीज है, साथ ही यह अहसास कि मैं किसी पर बोझ नहीं हूँ, बहुत बड़ा सुख है.
अपने घर में कच्चा-पक्का भी बने तो वही अच्छा है, इसमें भी एक प्रकार का सुख है. 🙂
गुड्डू दीदी ! मैं सोच रहा हूँ कि क्या मेरे पापा-मम्मी भी बूढ़े होंगे !!!
लगता तो नहीं !!!
क्या मुझे उनके लिए कुछ करना चाहिये.!!!
पापा को किचेन मे कभी नही देखा.. कभी कभार जब मम्मी गाव जाती तो देखता वो किचेन मे जाकर चाय बनाते और उस खराब चाय को पीने के बाद भी मै कहता कि अच्छी बनी है और अगली बार से मै बनाता… 🙂 वैसे किचेन मे जाने का मौका उन्हे कम ही दिया गया… चाची, नही तो चाचा ही खाना बना लिया करते थे… 🙂
आजकल मै कुक करता हू तो कभी किसी सब्जी के बारे मे पूछना होता है तो मम्मी को फ़ोन करता हू.. तो पापा खुद ही शुरु हो जाते है कि इसे ऎसे बनाओ.. और ये डालना, वो डालना 😉
बहुत सुन्दर लिखा है तुमने…
बहुत मार्मिक पोस्ट ह आराधना. सच है, अपने पिता को उम्र के हाथों या परिस्थितियों के चलते असहाय होते देखना सबसे अधिक तकलीफ़देह होता है. हम छह बहने हैं, सबकी शादियां हो गईं. आज मां-पापा दोनों अकेले हैं, उनकी चिन्ता में ही सही, लेकिन हम लोग आदेशात्मक सलाहें देने लगे हैं, जो मेरे पापा के दबंग व्यक्तित्व से मेल नहीं खातीं, और हमें पसन्द भी नहीं आतीं, लेकिन क्या करें?
हर एक के हिस्से में अपनी अपनी अनुभूतियां अपनी अपनी वेदनायें होती हैं , हम संयुक्त परिवार में पले , इस बारे में कभी सोचने का ख्याल तक नहीं आया , पर पढ़ाई और नौकरी के शुरुवाती दौर में खुद भुगतना पड़ा , आहिस्ता आहिस्ता रोटियां बे-शेप से खूबसूरत होती गईं , ज्यादातर आलस्य , चावल में कई दालों और कई सब्जियों के एक साथ मिश्रण से ताहिरी / खिचड़ी बनाने को प्रेरित करता …रात में घूम कर देर से लौटने पर यही विकल्प आसान लगता ! पड़ोस में एक मलयाली क्रिश्चियन परिवार रहता था , आंटी , स्टोव की आवाज सुनकर आ जातीं और कहतीं रात के बारह बजे कोई समय है खाना बनाने का चलो उठो …और अपने किचन में ले जाकर गर्मागर्म रोटियां …बस यही स्मरण है !
अब अपना परिवार है , काम में फंसकर सुबह चार बजे भी लौटूं तो पत्नी परवाह करतीं है , आगे क्या होगा पता नहीं !
आपका संस्मरण एक तरह से दुखी करता है पर दूसरे एंगल से सोचें …तो इतनी अच्छी / भावुक बिटिया …शुक्र है खुदा का रिश्तों में तपिश बाक़ी है अभी !
एक पोस्ट ने ही जब हमें इतना भावुक कर दिया तो ज़ाहिर है कि जिनका उनसे जीवन भर का जुड़ाव होगा वो कितने भावुक हो रहे होंगे… आदरणीय को मेरा भी नमन..
बहुत संवेदन शील लिखा है आपने , आज वैसे ही फादर्ज डे है , याद तो सबने किया होगा पर इस लेख से अपने पिताजी का धीरे धीरे शारीरिक रूप से अक्षम पड़ते जाना याद आ गया है …एक रोबीला व्यक्तित्व जब इस तरह ढलते जाता है ..बच्चे क्या कोई भी ताकत इस उल्टी गिनती को रिवाइंड नहीं कर सकती …और हम काल के मूक गवाह बने देखते रह जाते हैं , फिर किसी किसी दिन उनके क़दमों के निशान टीसने लगते हैं ।
उनकी सबसे अच्छी बात थी कि वे स्वाभिमानी थे ….दूसरे पर निर्भरता उन्हें बिलकुल पसंद नहीं थी ….अपनी शर्तों पर जीवन जी लेना एक बड़ी बात होती है….आपकी संवेदनाएं तो सीधे मन से जुड़ जाती हैं !
–बीते दिनों की यादें कसक छोडती ही हैं..
–सब छोड़ गए..दोनों को अकेला छोड़ कर….आँखें नाम कर गए ये शब्द…..
–पिताजी को उनकी उम्र के सबसे चुनौती भरे सालों से गुजरते देखना पीड़ा देता है क्योंकि इस समय व्यक्ति को अपना शरीर बोझ लगने लगता है ..उनके मन की पीड़ा को आप महसूस कर पा रही हैं..
कांपती उँगलियों में जब एक गिलास पकड़ने की ग्रिप भी नहीं रह जाती .उस समय वृद्ध व्यक्ति के दिल पर क्या गुजरती होगी , वह दर्द/भावनाएं आप समझ रही हैं..काश यह भावनाएँ सभी समझ पाते ..
इस समय उनके साथ आप जैसी समझदार बेटी है तो उन्हें बहुत सहारा है.
दिल को छू गईं आप की लिखी बातें.
आराधना जी, अच्छा किया, मन को व्यक्त कर दिया । पता नहीं हम ऐसे पिता हो पायेंगे कि नहीं । घर में कई बार ऐसा होता था कि पिता जी ने कोई बात कही और हम लोग उसे भूल गये । थोड़ी देर में देखा तो पिता जी स्वयं ही वह कार्य करने लगते थे । मन करता था कि वहीं गड़ जायें । इसी तरह से जिम्मेदार बनाये हमारे पिता जी । आपका संस्मरण पढ़ सब याद आ गया ।
सुन्दर संस्मरण! संवेदनशील ! अद्भुत!
अराधना जी, रुला दिया इस लेख ने. आँखें धुंधली हैं इस टिपण्णी को लिखते समय. कुछ कहने के लिए नहीं है मेरे पास लेकिन फिर भी टिपण्णी करना चाह रही हूँ. उम्मीद है आप समझ सकती हैं की किस भावना में डूबी हुई हूँ अभी.
बहुत सारा आदर आपके बाउजी को.
words fail to describe.
I have been reading your write up for quite some time and I admire not just your writing style but also how you are conducting your life after loss of your parents. I guess we are approximately same age. I am dealing with same dilemmas where I am seeing my parents aging and growing weaker by day. I do not know I would deal with all this at times I have blocked these thoughts from my consciousness so as not to deal with them.
very appropriate post for Father’s Day.
Stay strong, we need more women like you…
Peace,
Desi Girl
अंकल जी को प्रणाम !!
और क्या कहे, हम अभी कुछ कहने के मुड में नहीं हैं, एक ऐसी ही बात है, फिर कभी कहेंगे,
कुछ ऐसी बातें हैं जो मेरे दिमाग में घूमते रहती है, आपने वही सब बातें कह दी यहाँ
यादों के फ्रेम में जड़ी तस्वीरें कभी धुँधली नहीं पड़तीं…
-कितना सही कह रही हो…आज फादर्स डे है..अभी अभी भारत में पिता जी से बात की है..आज उनका जन्म दिन भी है. मन बहुत भारी है और उस पर से यह पोस्ट..पिता जी का चेहरा नजरों के सामने घूम रहा है. माँ के जाने के बाद से वो भी बहुत अकेले हैं मगर वो घर…उसे छोड़ कर यहाँ आना भी नहीं चाहते सिवाय थोड़े दिनों के…
सुन्दर भावुक करती पोस्ट!!
‘आज शायद फादर्स डे है, पर मेरे लिए रोज ही होता है….’
शायद यही ठीक है…यही होना हमें भावुक कम…और विवेकशील ज्यादा बनाता है…
ज़िंदगी से इसकी वास्तविकताओं के साथ जूझना सिखाता है….
यादों के फ़्रेम में जड़ी तस्वीरें…यही तो चाहती हैं….!!!
आराधना ! तुम जानती हूँ मैं कुछ नहीं कह पाऊँगी ..न जाने कहाँ कहाँ यादों का सफर करा दिया तुमने .
शीर्षक बहुत अच्छा लगा…. मुझे भी आज अपने मम्मी-पापा दोनों याद आ रहे हैं….. बहुत अच्छी और मार्मिक पोस्ट…
अपने पिता को बुढाते देखना ज़िंदगी का सबसे बुरा अनुभव होता है.
very touchy.
jaisa ki aapne likha ki “अपने पिता को बुढाते देखना ज़िंदगी का सबसे बुरा अनुभव होता है. जिन उँगलियों ने आपको पकडकर चलना सिखाया वो अब अखबार पढते हुए कांपती हैं… जिन हाथों ने हमें सहारा दिया, अब उनमे एक सोंटा होता है… छह फिट लंबा भारी-भरकम शरीर सिकुड़कर आधा हो गया है… गोरे-चिट्टे लाल चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गयी हैं…”
ye sab maine khud mehsus kiya hai apne pitaji ke liye jinhe gujre ab october me 6 sal ho jayenge….
yakin nahi karengi, hospital me tab jab ve pure time bed par hi rahne ko majbur the….sara nitykarma karwana hota tha,………tab, tab jakar lagaa ki kyn kahte hain ki baccha-budhaa ek samaan…….
kafi kuchh yaad aaya aapke is lekhan se…..
अपने पिता को बुढाते देखना ज़िंदगी का सबसे बुरा अनुभव होता है.
बिल्कुल सच.
पिता तो एक ग्लास पानी भी खुद लेकर नहीं पीते थे …उन्हें बुढ़ाते देख ही नहीं पाए विधाता की मर्जी से … मगर ससुरजी को देखा है …ऐसे ही स्वाभिमानी हैं …
हम सबकी स्मृतियाँ और वर्तमान कुछ खास रिश्तों से ऐसे ही जुड़ा होता है …
भावुक संस्मरण …
पिता को नमन और आपको ढेर सारा दुलार …
वाणी जी, धन्यवाद क्या दूँ, पर आपने दुलार दिया तो बहुत अच्छा लगा.
बहुत प्रेम से, स्नेह से, मार्मिक यादों में डूब कर लिखा हुआ…इतना लीन होकर कि उस समय अपने से नियंत्रण हट सा गया हो। अत्यन्त भावुक संस्मरण । पिता के प्रति बेटियों का प्यार – लोग कहते हैं वैसे भी ज़्यादा होता है। मुझे लगता है कि पिता के प्रति संतानों का और संतानों के प्रति पिता का प्रेम – जितना होता है – सभी के लिए होता है मगर जो जितना महसूस कर पाए…
सही कहा हिमांशु जी, जब मैं अम्मा या बाऊ के विषय में लिखती हूँ, तो सीधे डैशबोर्ड पर लिखकर पोस्ट कर देती हूँ… जो भी लिखती हूँ एक बार में क्योंकि भावनाओं का ज्वार रुकता नहीं. उस समय की भाषा भी इसीलिए स्वाभाविक होती है…
बेटियां माता पिता के साथ बीते हर लम्हे को समेटती हैं…बहुत भावनाप्रधान लिखा है….इससे ज्यादा कुछ नहीं कह पाऊँगी…
आज चार दिन बाद नेट पर आई और सबसे पहले तुम्हारी पोस्ट पढ़ी. इतने मार्मिक रूप में इस निर्मम सत्य को उजागर किया है कि मन भर आया. कमो बेश हर घर का यही हाल है…और स्वाभिमानी इतने होते हैं, कि जबतक काम कर पाते हैं,अपने बच्चों के यहाँ भी जाकर रहना पसंद नहीं करते.
अपने पिता के पुराने रौबीले व्यक्तित्व के साथ उनकी इस निरीहता का सामंजस्य बिठाना बहुत ही दुष्कर और कष्टकर होता है.
एक बार में पढ़ लिया. जो बात पिता के लिए यहाँ कही गयी “बुढ़ाते हुए देखना…” फिलहाल मैं अपने दादा जी के लिए महसूस कर रहा हूँ.
भावपूर्ण प्रविष्टि ! सुन्दर संस्मरण !
कुछ वाक्य तो बड़ी देर तक मन पर हावी रहे !
प्रिय आराधना,
पिता दिवस के उपलक्ष्य में बहुत ही मार्मिक और भावपूर्ण आलेख है…पिता परिवार का स्तंभ होता है इसलिए उसका बूढ़ा होना मतलब शरीर की जर्जरता देख मन भयभीत हो जाता है कि कहीं हम इनसे बिछुड़ न जाएं यह अहसास हमें झकझोर देता है।संवेदना से परिपूर्ण , सुन्दर शब्द सौष्ठव एवं यथार्थपरक प्रस्तुति मर्म को बेध गई….पिता को नमन एवं पिता की इस भावुक बेटी को ढेर सारा स्नेह एवं लेखन के क्षेत्र में यशस्वी होने की हार्दिक शुभकामनाएं…..
माता -पिता को खोने की पीड़ा क्या होती है यह मुझे पता है इसलिए मैं तुम्हारा दर्द अनुभव कर सकती हूँ …शायद इसी पीड़ा ने तुम्हारे लेखन को इतना परिपक्व बना दिया है…यह संवेदना हमेशा जीवित रखना….शेष फिर….
डा.रमा द्विवेदी
मन में कुछ अटक गया है ….जानती हो जब किशोर थे तो अक्सर झुंझला जाते थे …कभी कभी पिता के अनुशासन से विद्रोह करने के ख्याल आते थे …अब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो लगता है जितने सुखो का त्याग उन्होंने किया है वे अब तक हम नहीं कर पा रहे है ….शायद अब तक पापा इतना कर रहे है …अभी भी कभी कभी गुस्से में कुछ प्रतिक्रिया दे देता हूँ .बाद में खुद ही ग्लानि महसूस करता हूँ .सबसे खूबसूरत बात अपने बच्चे को पिता के साथ बड़े होते देखना है………
तुम्हारे पास एक बड़ा दिल है ……बहुत बड़ा …..
कितना रुला दिया यार आपने आज. अपने दादाजी की याद आ गयी , और वो धुल से सनी किताबें, सून घर देखकर पता नहीं क्या क्या याद दिला दिया …रुला दिया, आँखें नम हैं अभी भी …दादाजी नहीं हैं अब , पर जब गाँव में था बहुत पास थे, जब वो गाँव में थे मैं शहर था और जब पापा आज भारत में है तो में विदेश में ….अपनों से ना चाहकर भी हम क्यों दूर रहते हैं….ये सवाल शायद मुझे वापस ले चले मेरी जड़ों कि और ….
पहली बार आना हुआ आपके ब्लॉग पर और ये सार्थक रहा
दिल को छू लेने वाली अभिव्यक्ति.
Kya kuchh na yaad dila diya..Ek sansmaran likha tha maine,”Royi aankhen magar..”Ise padh ke bhi aankhen rone lageen!
जी करता है रो दूँ … आज मुझे अपने पापा की बहुत याद आ रही है … सर्विस की समस्याओं के चलते बहुत दिनों तक इन्हीं परिस्थितियों मे अकेले रहे … और घर आने से पहले ही ट्रक दुर्घटना मे हमें छोड़ गए … आप बेटी हैं… आप की भावनाएं पिता के साथ किस कदर जुड़ी होती हैं उन्हें मै महसूस कर सकता हूँ …
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