“…कचौड़ी गली सून कईलैं बलमू”

आजकल ब्लॉगजगत में फागुन आया हुआ है. कुछ लोगों ने तो अपने ब्लॉग पर चेतावनी भी लगा रखी है कि भई संभल के टिप्पणी देना, इस ब्लॉग पर फागुन आया है. पर, मेरा मन इन दिनों एक कजरी पर अटका हुआ है. डॉ. अरविन्द को शायद यह भी फागुन का ही असर लगे और हो भी सकता है.

असल में, कुछ दिन पहले मेरे एक मित्र ने मुझे कुछ गीत दिये, जिन्हें उस्ताद बिस्मिल्ला खां की शहनाई के साथ शोमा घोष ने अपनी मीठी आवाज़ में गाया है. इन तीन गीतों में मुझे सबसे अधिक अच्छी लगी एक कजरी, जिसे उस्ताद ने “बनारसी कजरी” कहा है. मैंने “मिर्जापुरी कजरी” सुनी है और अक्सर गुनगुनाती भी रहती हूँ. मेरी अम्मा कजरी गाती थीं. मैंने उन्हीं से सीखा था. उनके पास एक डायरी थी, जिसमें बोल और तर्ज़ के साथ बहुत से लोकगीत संकलित थे. मैं सिर्फ़ तेरह साल की थी, जब उनका स्वर्गवास हुआ. इसलिये ज़्यादा कुछ सीख नहीं पायी. मित्र के दिये इन गीतों को सुनकर मैं खो सी गयी.

शोमा घोष के बारे में मैंने बहुत सुना था, पर उन्हें नहीं सुना था. जो कजरी इस संकलन में है, उसके बोल हैं,”मिर्जापुर कईलैं गुलजार हो, कचौड़ी गली सून कईलैं बलमू.” उस्ताद की शहनाई के साथ इसका प्रभाव अद्भुत है. इसी तर्ज़ पर एक कजरी मुझे याद थी, “रिमझिम पड़इलै फुहार हो, सवनवा आइ गइलै गोरिया” इस गीत का एक अतंरा भी याद है. मिर्जापुरी कजरी जो मुझे आधी आती है, उसके बोल हैं,”पिया मेहंदी मँगाइ दा मोतीझील से, जाई के साईकील से ना…पिया मेहंदी तू मँगाइ दा, छोटी ननदी से पिसाई दा, अपने हाथ से लगाई दा कांटा कील से, जाई के साईकील से ना…” इस कजरी की तर्ज़ सामान्यतः प्रसिद्ध कजरी से अलग है. जो कजरी आमतौर पर अधिक प्रचलित है, “झूला पड़ा कदम की डारी, झूलैं राधा प्यारी रे” इसे थोड़े से अलग तर्ज़ से गाते हैं, तो ऐसे बनता है,”अरे रामा बेला फुलै आधी रात, चमेली बड़े भोरे रे हारी” यही “हारी” और “रे” के अन्तर से तर्ज़ में थोड़ा अंतर आ जाता है. इस प्रकार कजरी विधा की कुल चार तर्ज़ मैंने सुनी हैं. मुझे बस इतना ही पता है. और अधिक जानना चाहती हूँ.

सुधीजन कहेंगे कि ब्लॉगजगत इस समय फागुनमय है और कजरी के पीछे पड़ी हूँ. पर क्या करूँ, गीत सुना, तो स्वयं को रोक नहीं पायी अपने अनुभव बाँटने से.


18 विचार ““…कचौड़ी गली सून कईलैं बलमू”&rdquo पर;

  1. “अपनी धुन में रहता हू ” की तर्ज़ पर कहना चाहूँगा की बहुत धन्यवाद मिर्ज़ापुर और कचौरी गली की याद दिलाने की ..वही का हू न ..और इतना दूर भी नहीं हू की रोज आ जा न सकू..मेरा सफ़र ही गंगा से गंगा तक का है ..और जब गाँव में रहता हू तो कजरी इत्यादि सब कुछ सुनने को मिल जाता ही सजीव रूप में ..मौसम का आना जाना तो गाँव में ही पता चलता है न ..शहर में तो सिर्फ blocks होते है ..इसीलिए सब परंपरा से जुडी भावनाए blocked रहती है ..पिछली बार जब मिर्ज़ापुर गया था तो अपने गाँव के दूकान में गीत सुनने को मिला.सुनते है बड़ा पुराना है ये गीत..अभी ऑडियो ढून्ढ रहा हू पर किसने गाया है यही नहीं याद है ..जिसके दूकान पे मैंने सुना था उसने कहा “एकर सीडी का लिफाफा हेराई गवा बा ” फिर वक्त ही नहीं मिला की किसी दूकान पर जाके खोजू ..आपके पास है कोई जानकारी …

    रेलिया बैरन…पिया को लिए जाए रे…
    रेलिया बैरन, पिया को लिए जाए रे…..(3)
    जौने टिकसवा से, पिया मोरे जैईहें……(3)
    बरसे पनिया, टिकस गलि जाए रे…..(2)

    जौने शहरवा में पिया मोहे जैईहें………(3)
    लग जाए अगिया, शहर जल जाए रे…..(3)

    जौने मलिकवा के पिया मोरे नौकर….(2)
    पड़ जाए छापा, पुलिस लै जाए रे…….(3)
    रेलिया बैरन, पिया को लिए जाए रे…………….(3)

    जौने सवतिया के पिया मोरे आशिक….(3)
    गिर जाए बिजुरी, सवत मर जाए रे…..(2)
    रेलिया बैरन, पिया को लिए जाए रे…..(2)

    अरे…..धीर धर गोरिया रे, तोरे पिया रहिएं….(3)
    विनती करिहें, पिया जी घर आएं रे……(3)
    रेलिया बैरन पिया को लिए जाए रे…….

    1. ओह अरविन्द, आपने तो फिर बचपन में पहुँचा दिया. यह गीत मैंने अपनी अम्मा से ही सुना था. वो जब बहुत खुश होती थीं, तो ऐसे गीत गाती थीं. आपको बहुत धन्यवाद यह गीत पूरा लिखने के लिये.

  2. सभी कजरियां मैंने सुनी हैं संयोग वियोग की अदम्य अभिलाषा, अनुभूति और अकथ पीड़ा सभी कुछ गहनता के साथ मुखरित हैं इनमें -इस समय तो फाग का मौसम है -हाँ भावनाए तो वही हैं -होरी चैता बेलवयिया तनिक इनमें भी तो मन /कानलगाईये – तरसे जिया मोर बालम मोर गदेलवा ….बहरहाल यहाँ की मशहूर कचौड़ी गली में कचौड़ी खाने और यही की मोतीझील को घुमाने का फागुनी निमत्रण है आपको -जब चाहे आ जाएँ -अभी और फागुन के बाद भी कभी .अवसर मत चूकिए ,यहाँ से ट्रान्सफर हो जाने के बाद ..फिर मत कहियेगा .

  3. Reposting the comment:

    “अपनी धुन में रहता हू ” की तर्ज़ पर कहना चाहूँगा की बहुत धन्यवाद मिर्ज़ापुर और कचौरी गली की याद दिलाने की ..वही का हू न ..और इतना दूर भी नहीं हू की रोज आ जा न सकू..मेरा सफ़र ही गंगा से गंगा तक का है ..और जब गाँव में रहता हू तो कजरी इत्यादि सब कुछ सुनने को मिल जाता है सजीव रूप में ..मौसम का आना जाना तो गाँव में ही पता चलता है न ..शहर में तो सिर्फ blocks होते है ..इसीलिए सब परंपरा से जुडी भावनाए blocked रहती है ..पिछली बार जब मिर्ज़ापुर गया था तो अपने गाँव के दूकान में गीत सुनने को मिला.सुनते है बड़ा पुराना है ये गीत..अभी ऑडियो ढून्ढ रहा हू पर किसने गाया है यही नहीं याद है ..जिसके दूकान पे मैंने सुना था उसने कहा “एकर सीडी का लिफाफा हेराई गवा बा ” फिर वक्त ही नहीं मिला की किसी दूकान पर जाके खोजू ..आपके पास है कोई जानकारी …वैसे जहा तक मुझे ख्याल है मैंने जो version सुना था वो मालिनी अवस्थी का था शायद ..किसी और गायक ने गाया है इसे ?

    रेलिया बैरन…पिया को लिए जाए रे…
    रेलिया बैरन, पिया को लिए जाए रे…..(3)
    जौने टिकसवा से, पिया मोरे जैईहें……(3)
    बरसे पनिया, टिकस गलि जाए रे…..(2)

    जौने शहरवा में पिया मोहे जैईहें………(3)
    लग जाए अगिया, शहर जल जाए रे…..(3)

    जौने मलिकवा के पिया मोरे नौकर….(2)
    पड़ जाए छापा, पुलिस लै जाए रे…….(3)
    रेलिया बैरन, पिया को लिए जाए रे…………….(3)

    जौने सवतिया के पिया मोरे आशिक….(3)
    गिर जाए बिजुरी, सवत मर जाए रे…..(2)
    रेलिया बैरन, पिया को लिए जाए रे…..(2)

    अरे…..धीर धर गोरिया रे, तोरे पिया रहिएं….(3)
    विनती करिहें, पिया जी घर आएं रे……(3)
    रेलिया बैरन पिया को लिए जाए रे…….

  4. मुक्ती जी !
    फागुन में सावन ..
    हमें भी सावन ज्यादा खींचता है .. अगस्त वाला महीना तो खासकर ..
    इसी महीने में आया इस सार-सार ( क्यों कहूँ असार ! ) संसार में ..
    ……….. अरे , ये कजरी काहे बिसार दिया आपने —
    ” कैसे खेलन जइबू सावन मा कजरिया ,
    ………………………………… बदरिया घेरि आई ननदी | ”
    .
    उस्ताद की शहनाई , कजरी और उसपर भी शोमा घोष की खनकती आवाज !
    इस अद्भुत संयोग को जब – तब सुनता रहता हूँ – गुनता रहता हूँ …
    .
    ” ….. तो स्वयं को नहीं पायी अपने अनुभव बाँटने से… ”
    ‘रोक’ शब्द आना चाहिए ,,, शायद इडित करने में छूट गया है … सुगतिया दीजिये ..
    .
    लोक की तर्ज और गीतों की डायरी सम्हाले रहिये .. मुझ – से प्यासों की तृप्ति इन्हीं सी
    होती है ..
    ……………… सुन्दर पोस्ट … आभार !

  5. कभी बनारस से दूरदर्शन पर उस्ताद को साक्षात सुना था। उस दिन मूड में थे जाने कितनी भूली बन्दिशों को सुनाया था। एक के बोल नहीं थे तो धुन ही बजाई थी।
    बहुत कुछ लुप्त हो चला है। सहेज रखिए।

    मन बहकता है तो जाने कहाँ कहाँ चला जाता है। मुझे बिदेसिया की धुन याद आ रही है। उस पर कुछ जोड़ दिया है:

    “फागुन महिनवा सावन भइलें हो
    काहें सैयाँ तजल देस रे बिदेसिया
    झर झर लोर गिरे नयनन रहिया
    जिनगी भइल अझेल रे बिदेसिया।”

      1. पानी बरस रहा है !! बरसेगा ही !! कोई बिन मौसम मल्हार गायेगा ,कजरी की बात करेगा,परम्पराओ के निर्वाहन की बात करेगा तो देवता भी आखिर देवता है .बेचारे हो गए Excited मारे ख़ुशी के और बरस पड़ी बूंदे ..मुकेश साहब का गीत याद आ गया ..थोड़ा out of context है..पर फिर भी आपने जो कजरी की बात फाल्गुन में की है उस पर फिट है …

        सुन लो मगर ये किसी से न कहना
        तिनके का लेके सहारा न बहना -2
        बिन मौसम मल्हार न गाना ,
        आधी रात को मत चिल्लाना
        वर्ना पकड़ लेगा पुलिस वाला
        दिल का हाल सुने दिल वाला

  6. वाह यहाँ तो समां बंध गया है और मै पहुंचा देर से … कोई बात नहीं बाद में आने के अपने मज़े हैं … इतनी खूबसूरत टिप्पणियां भी देखने को मिल गयीं … कितना अच्छा लगता है … शायद ये अपने आप में अनूठा ब्लाग है जिसमे पोस्टों से ज्यादा बड़ी बड़ी टिप्पणियां होती हैं … और वो भी अपने पूरे दाम ख़म के साथ …
    एक कजरी बचपन में सुनी थी जिसकी एक लाइन ही अभी लिख पाऊंगा पर इतने से ही उसकी ताकत का अंदाजा लग जाएगा ऐसा समझता हूँ
    …. लागल झुलनिया के धक्का बलम कलकात्ता पहुंचि गे
    आगे की लाइनों की खोज जारी है

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