फिर से

कहते हैं हर लिखने वाले के जीवन में एक समय ऐसा ज़रूर आता है, जब उसका लिखने-पढने से जी उचट जाता है. अंग्रेजी में इसे राइटर्स ब्लॉक कहते हैं. मैं खुद को कोई लेखक-वेखक नहीं मानती और न ही अपने जीवन में कभी इसका अनुभव किया था. लेकिन पिछले दो-तीन सालों में मुझे ऐसा ही कुछ महसूस हो रहा है. ऐसा लगता है मानो दिमाग बंद हो गया हो. न कुछ पढ़ पा रही हूँ न ही लिख पा रही हूँ. मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरे जीवन में ऐसा भी समय आएगा. एक वाक्य लिख पाना भी मुश्किल हो गया. अगर कुछ लिखती भी हूँ तो ऐसा बकवास होता है कि खुद ही पढ़ने का मन नहीं होता.

ऐसा सब के साथ होता होगा या नहीं भी. मुझे ज़्यादा नहीं पता. लेकिन इसे इतना लम्बा नहीं चलना चाहिए. इतना कि लगे अब दोबारा कभी कुछ नहीं लिख पाऊँगी. कभी-कभी खूब ज़ोर-ज़ोर से रोने का मन होता है. मैं बचपन से लेकर कुछ सालों पहले  तक बस पढ़ती ही रही हूँ. पढ़ाई के लिए सब कुछ छोड़ दिया मैंने- संगीत, पेंटिंग, स्केचिंग, स्पोर्ट्स सब कुछ. ये मेरी जिंदगी है और अभी लगता है कि जिंदगी ही खत्म हो गयी और मैं बेजान हूँ. ये उसी तरह है मानो किसी धावक के पैर कट गये हों, या किसी पेंटर के हाथ या किसी गायक का गला बुरी तरह ख़राब हो गया हो. जो जिसके लिए जीता है उससे वही छिन जाय.

कोशिश कर रही हूँ कि इससे उबर पाऊं. मुझे खुद समझ में नहीं आ रहा है कि मैं लिख क्या रही हूँ? पिछले पूरे साल एक भी ब्लॉग पोस्ट नहीं लिखी और इस साल की यह पहली ब्लॉग पोस्ट है. मुझे नहीं पता कि मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है? क्या मेरा मन कहीं और लगा हुआ है या इसका कारण डिप्रेशन है या मेरे मन-मस्तिष्क ने काम करना बंद कर दिया है या अब क्षमता नहीं रही या बूढ़ी हो गयी हूँ? कारण कुछ भी हो, मैं दिल से लिख नहीं पा रही.

क्या मैं इससे कभी उबर पाऊँगी? क्या मैं फिर से लिख पाऊँगी?

 

15 विचार “फिर से&rdquo पर;

  1. लिखने में केवल दिल का प्रयोग करें, केवल दिल का। जो दिल कहे उसे लिखती जाएं, बस सरल हो जाएगा लिखना। हम दीमाग को अनावश्यक घुसाते हैं और लिखना रूक जाता है। हमारे साथ भी यही होता है।

  2. नहीं कहते huye भी आपने लिख तो लिया ही, मुझे लगता है आप in dinon अवसाद से गुज़र rahi हैं, yahi से खुद को खोजने की यानि अंतर्यात्रा की shuruaat हो सकती है, PLS take care yourself.

    1. पता नहीं सतीश जी, मुझे तो लगता है कि जब मैं बहुत ज़्यादा लिख रही थी तब अवसाद से उबरने की कोशिश कर रही थी. पिछले कुछ दिनों से शांति सी महसूस हो रही है. खूब घुमने-फिरने और फोटोग्राफी करने का मन हो रहा है. बस लिखने पढने से जी उचटा सा है.
      कुछ भी हो, इतने दिनों के बाद आपसे संवाद सुखद है.

      1. कई बार हम चाहतों का पहाड़ खड़ा कर लेते हैं..अपने इर्द-गिर्द एक ऐसा बीहड़ गढ़ लेते हैं..जहां से खुद को निकालना कठिन दिखता है..पर मुक्ति का विकल्प हमेशा हमारे पास होता है..बस करना इतना है कि अपने अंदर जारी द्वंद्व को समझें..उसकी पुकार को सुनें..और मन की अदालत में सच्ची दलीलें रखें..भले ही वो सच हमें भाले की तरह भेद दे…मैं आपको व्यक्तिक तौर पर नहीं जानता..पर मुझे यह लगता है कि ये बेचैनी अस्तित्व की ओर से आपको संकेत है..एक दिन हमें निकलना ही पड़ता है..अपने सच को खोजने..संवेदना की बाती जल रही है..और ज्ञान का प्रकाश आलोकित है..कृपया एक बार मैं’ से मुक्त होकर देखें..हो सकता है…आपको सारे शेष प्रश्नों के जवाब स्वयं समय ही दे दे…

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