नहीं समझ में आ रहा है बात शुरू कहाँ से करूँ? शीर्षक देने का भी मन नहीं हो रहा। मेरी समस्या ये है कि मैं अति संवेदनशील हूँ। कोई भी समस्या सुनती हूँ, तो परेशान हो जाती हूँ। ये परेशान होना उसके हल के लिए इतना बल देने लगता है कि समस्या की जड़ ढूँढने की कोशिश करने लगती हूँ और उसके समाधान को खोजने की भी। पर इस समस्या का कोई हल मुझे नहीं मिल रहा। बहुत सोचा पर कभी-कभी ये खुद के बस में होता ही नहीं।
ये एक कहानी है। गल्प नहीं। वास्तविक कहानी। वास्तविकता, जो कभी-कभी कल्पना से बहुत अधिक भयावह होती है। एक झटके में आपके आगे से एक पर्दा हटता है और आपको सच्चाई का वो घिनौना चेहरा दिखता है, कि खून के रिश्तों से नफ़रत होने लगती है, दुनिया कपटी-छली लोगों से भरी लगती है और ईश्वर के अस्तित्व पर संदेह होने लगता है।
कहानी एक लड़की की है, जो शहर से कहीं दूर एक गाँव में रहती है। उसके पिता सरकारी कर्मचारी थे, जो अब रिटायर हो गए हैं। लड़की चार बहनों में से एक थी। बाकी सबकी शादी हो चुकी थी। पहले तो पिता ने लड़की को आठवाँ पास कराके घर में बिठा दिया था, लेकिन कुछ पढ़े-लिखे लोगों के समझाने पर पढ़ाने को राजी हो गए। लड़की होशियार थी, पढ़ती गयी। उसने एम.ए. किया बी.एड. किया। जब दूसरे शहर जाकर नौकरी करने की सोची, तो उसे मना कर दिया गया। कहा गया कि तुम्हारी शादी हो जाय, तो पति और ससुराल वाले नौकरी करवाएं तभी करना।
पिता के रिटायर होने के बाद से छोटा भाई घर का मालिक बन गया। ग्रेच्युटी और फंड के पैसों को देखकर उसे लालच आ गया। भाई ज़्यादा दहेज देना नहीं चाहता। इसलिए ऐसे-ऐसे रिश्ते खोजकर लाता, जो लड़की को पसन्द ही नहीं आते। लड़की ने जब एक-दो बार मना कर दिया, तो भाई कहने लगा कि लड़की शादी करना ही नहीं चाहती। रिश्ते अब भी आते हैं। लड़के वाले दहेज माँगते हैं, लड़की वाले देना नहीं चाहते। बिना दहेज के वही लड़का शादी करने को तैयार होता है, जो या फिर विधुर है या तलाकशुदा या उसमें कोई शारीरिक कमी है। लड़की इस तरह के लड़कों को अपना मुँह दिखा-दिखाकर थक गयी है।
पिछले छः साल से लड़की इसी स्थिति में है। उसकी आयु बत्तीस साल हो गयी है। न उसकी शादी हो रही है और न उसे नौकरी करने दी जा रही है। लड़की कहीं भाग न जाय, इसलिए उस पर कड़ा पहरा है। उसके बाहर निकलने पर नज़र रखी जाती है। हालत ये है कि लड़की ना किसी गाँववाले से बात करना चाहती है और न किसी रिश्तेदार से। वो भयंकर डिप्रेशन में है। हाँ, उसके भाई ने ये ज़रूर कहा है कि वो आत्महत्या कर ले, तो सारी समस्या हल हो जायेगी क्योंकि भागने पर प्रतिष्ठा धूमिल होगी, जबकि आत्महत्या करने पर ये कहा जा सकता है कि डिप्रेशन में थी। इसलिए खुद को खत्म कर लिया।
लड़की के घरवाले इतने गरीब नहीं हैं कि दहेज ना दे सकें। उनके पास अच्छी-खासी खेत की ज़मीन भी है और आबादी की भी। कुछ ज़मीन सड़क किनारे भी है, जिसका कमर्शियल इस्तेमाल हो सकता है। यहाँ शायद लड़की का ब्राह्मण परिवार का होना बहुत से लोगों को प्रासंगिक न लगे, लेकिन मेरे विचार से है क्योंकि तथाकथित सवर्ण परिवारों में प्रतिष्ठा, कभी-कभी व्यक्ति के जीवन से कहीं ज़्यादा बढ़कर हो जाती है। पश्चिमी यू.पी. में होने वाली ऑनर किलिंग और हमारे पूर्वी यू.पी. में लड़कियों को घर से बाहर खेतों तक भी न जाने देना, इसी प्रतिष्ठा से जुड़े हैं। दूर-दराज के गाँवों में ऐसी एक नहीं, कई कहानियाँ हैं, जहाँ अभी तक इक्कीसवीं सदी की किरण तक नहीं पहुँची है। लोग लड़कियों को पढ़ा तो देते हैं, लेकिन उन्हें अपने फैसले खुद लेने की आज़ादी नहीं है।
लड़की ने कुछ शुभचिंतकों से मदद माँगी। कहा कि मेरी यहाँ से निकलने में मदद करो। शादी करवा दो या नौकरी लगवा दो, बस इस “शादी के इंतज़ार” से मुक्ति दिलवा दो। लेकिन उन्होंने उल्टा उसे ही समझा दिया कि ‘दुनिया बहुत खराब है। बाहर भेडिये घूम रहे हैं। तुम कहाँ जाओगी? घर से भागी हुयी लड़कियों की कोई कीमत नहीं होती। सब उनका इस्तेमाल करना चाहते हैं.’ गाँवों में वैसे भी कोई किसी की दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहता। लड़कियों के मामले में तो और नहीं पड़ना चाहता। उन्हें कोई घर में भी नहीं रखना चाहता कि कहीं लड़की के माँ-बाप अपहरण का केस न करा दें।
मैं अगर इस समस्या का हल पूछूँ तो शायद कुछ लोग ये कहें कि लड़की के घरवालों को दहेज दे देना चाहिए, लेकिन क्या ये दहेज प्रथा का समर्थन करना नहीं हुआ? जब भी मैं सम्पत्ति में अधिकार की बात करती हूँ, तो लोग भाई-बहन के सम्बन्धों की दुहाई देने लगते हैं। इस मामले के बारे में उनका क्या कहना है? अगर लड़की भी लड़कों की तरह ही सम्पत्ति में बराबर की हकदार होती, तो क्या भाई को इस तरह से घर का मालिक बन जाने की हिम्मत होती?
मैं नहीं कहती कि सारे भाई ऐसे होते हैं। मैं ये भी नहीं कहती कि सारे माँ-बाप ऐसे होते हैं। सारी लड़कियों की कहानी भी ऐसी नहीं होती। मुश्किल उनकी नहीं है, जिन्होंने रोशनी देखी ही नहीं है। मुश्किल उनके लिए है, जिन्होंने रोशनी देख ली है, लेकिन अँधेरे में रहने को मजबूर हैं। मैं शाम से बहुत दुखी हूँ। प्रेम का सारा सुरूर हवा हो गया है, फागुनी हवाएँ काटने को दौड़ रही हैं। मैं दुखी हूँ। बहुत दुखी।
परिवार की शर्मनाक मानसिकता का उदहारण है…
अगर यह लड़की आपकी मित्र है तो इसे अपने पास दिल्ली क्यों नहीं बुलाती ? उसे अपने पैरों पर खड़ा करने में मदद दीजिये ! आप अपने मित्रों से मदद ले सकती हैं , ! भले मित्रों का ईमानदार सहयोग एवं शुरू में थोड़ी सी आर्थिक मदद इस लड़की को नया जीवन देने में सहायक होगा ! किसी भी कार्य को जुड़े ४ हाथ बहुत मज़बूत होते हैं….
केवल इच्छा शक्ति चाहिए ….
मुश्किल उनके लिए है, जिन्होंने रोशनी देख ली है, लेकिन अँधेरे में रहने को मजबूर हैं।
बिलकुल सही लेकिन आप को ये किसी एक की समस्या क्यूँ लगती हैं महज इस लिये क्युकी उस एक को आप जानती हैं शायद .
मुक्ति
ये तो गाँव की बात हैं जैसे सतीश जी ने कहा उसको अपने पैरो पर खड़ा होने के लिये प्ररित किया जा सकता हैं पर उसके आगे ???? जानती हो क्या की सर्वे हुआ हैं जिसके तहत ये पता चला हैं की बहुत सी शहर में रहने वाली स्वाबलंबी स्त्रियाँ नौकरी छोडने को मजबूर हैं क्युकी परिवार एकल होगये हैं और बच्चो की देखभाल के लिये माँ को नौकरी छोड़ना अनिवार्य हैं . सरकार का मानना हैं की एक नॉन productive फोरस बन रही हैं .
हमारे समाज में स्त्री को पढ़ा दिया यही अभी उसके ऊपर एक एहसान रूप में किया जाता हैं . शादी से उसकी सुरक्षा को जोड़ कर उसको भीरु बना दिया जाता हैं .
कमेन्ट में इतना लिख सकती हूँ की पोस्ट ही बन जाये
इस लिये एक अल्पविराम
जानती हैं, हर व्यक्ति अपनी भवितव्यता का खुद मालिक होता है -इस दुनिया में कोई किसी के लिए कुछ नहीं करता -खुद अपनी जगह बनानी पड़ती है -अपनी लडाई लड़नी पड़ती है -आप खुद उदाहरण हैं ,मनीषा पाण्डेय भी हैं -सतीश भाई तो बहुत सहृदय इंसान हैं -मगर उनका रास्ता ठीक नहीं है -कोई कब तक किसी और के सहारे रहा करे –
यह जान लीजिये इस दुनिया में बिना किसी प्रत्यक्ष या परोक्ष स्वार्थ के कोई किसी की मदद नहीं करता -सतीश भाई और मैं, निर्लज्जता माफ़ करें 🙂 अपवाद हैं !
वह लड़की अगर योग्य है तो रोजी रोटी का कोई भी सम्मानजनक कम मिल सकता है -बस थोडा देहरी लांघने की हिम्मत करे बस .
और फिर आप काहें इतना हलकान हो रही हैं-और कोई कारण नहीं मिला क्या आज हलकान होने का ?
nice
गाँव कस्बों में ये बहुत आम बात है | लड़कियां ऐसे मामलों हिम्मत करें यह आवश्यक है पर परिवारजनों का साथ मुश्किलें आसान कर देता है , और उनका विरोध मुश्किलों को कई गुना बढ़ा भी देता है….
हर शब्द की अपनी एक पहचान बहुत खूब कहा अपने आभार
ये कैसी मोहब्बत है
Main hairaan hu ki abhi tak kisi ne ye baat nahi ki k dahej pratha ko rokne ke liye ladko ko aage ana chahiye….agar aaj ke naujwaan hausle kare aur ekjut hokar dahej na lene ka pran le to is samasya ka samadhan ho sakta hai……maine bhi shaadi ki hai aur aise hi bina dahej ke ki hai…
अराधना समझ नहीं पा रही हूँ क्या कहूँ. बेहद दुखद है यह सब. यह सच है कि पुलिस , एन जी ओ या किसी संस्था का रास्ता दिखाना बेमानी है, उनके भी इतने किस्से सुने हैं कि …और यह भी सच है कि आज की दुनिया में कोई किसी की मदद बिना स्वार्थ नहीं करता या फिर किसी के मामले में पड़ना नहीं चाहता .ले दे कर मुझे भी यही लगता है कि अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी , खुद ही हिम्मत और आत्म विश्वास बनाये रखना होगा. और उसे बाहर निकलना होगा, काम तो कोई न कोई मिल ही जाएगा, आत्म निर्भर हो जाएगी जो जायदाद में हिस्सा भी मांग सकती है यह अब कानूनी हक है. हम तुम तो बस लिख सकते हैं या अपनी लिमिट में ही ऐसे परिवारों को समझाने की कोशिश कर सकते हैं.
प्रतिक्रिया में मेरे कठोड़ शब्दों को देख बुरा नहीं मानेंगे तो आगे पढ़िए,,,
आपने कहानी के पहले और समाप्त होने के बाद लिखा है कि आप “अतिसंवेदनशील हैं” आप “बहुत दुखी है”. आपके सिग्नेचर से (a research fellow of ICSSR at JNU) फिर भी आपको समाधान नहीं दिख रहा है “आश्चर्य है”. इस पोस्ट में ही समस्याओं के कारण हैं और इनके समाधान के रास्ते भी निकल कर सामने आ रहे है (हाँ कुछ अपवादों को छोड़ कर जो समाज में घटते रहते हैं)
“..लड़की होशियार थी, पढ़ती गयी। उसने एम.ए. किया बी.एड. किया। जब दूसरे शहर जाकर नौकरी करने की सोची, तो उसे मना कर दिया गया। कहा गया कि तुम्हारी शादी हो जाय, तो पति और ससुराल वाले नौकरी करवाएं तभी करना।” ??
– लड़कियों/स्त्रियों के प्रति आम समाज की सोच।
“..पिता के रिटायर होने के बाद से छोटा भाई घर का मालिक बन गया। ग्रेच्युटी और फंड के पैसों को देखकर उसे लालच आ गया।”??
– चार बेटियों के पिता की अदूरदर्शिता और स्वार्थलोलुप भाई से और क्या उम्मीद करती हैं आप।
“..बिना दहेज के वही लड़का शादी करने को तैयार होता है, जो या फिर विधुर है या तलाकशुदा या उसमें कोई शारीरिक कमी है।” आगे “…क्योंकि तथाकथित सवर्ण परिवारों में प्रतिष्ठा, कभी-कभी व्यक्ति के जीवन से कहीं ज़्यादा बढ़कर हो जाती है। लोग लड़कियों को पढ़ा तो देते हैं, लेकिन उन्हें अपने फैसले खुद लेने की आज़ादी नहीं है।”??
– मैं सहमत नहीं हूँ, यदि जात से बाहर निकल कर देखें तो परिवार वाले बहुतेरे लड़के मिलेंगे बिना दहेज़ के।
ये किसी एक लड़की की कहानी नहीं है और जैसा के आपने लिखा है “..दूर-दराज के गाँवों में ऐसी एक नहीं, कई कहानियाँ हैं, जहाँ अभी तक इक्कीसवीं सदी की किरण तक नहीं पहुँची है।”??
– ये हमारे भ्रष्ट लोकतंत्र के कारण है। सीधा मतलब ये कि – बहुमत ही अज्ञानी, स्वार्थी वोटरों से भरा है जो मुखिया और नगर वार्ड निकाय इत्यादि चुनावों से शुरू होता है.
“..अगर लड़की भी लड़कों की तरह ही सम्पत्ति में बराबर की हकदार होती, तो क्या भाई को इस तरह से घर का मालिक बन जाने की हिम्मत होती?” ??
– मुझे जहाँ तक ज्ञात है हिन्दू परिवार क़ानून में बेटियों का सीधा हक़ है, जब भाई अन्याय पर उतर जाए तो क़ानून का सहारा जरुर लिया जाये. कुछ अच्छे सोच वाले रिश्तेदारों /मित्रों से बातचीत शुरू कर क़ानूनी हक़ लिया जा सकता है.
अराधना जी, अंत में मैं यही कहूंगा कि “मुश्किल उनके लिए है जो ज्ञान की रौशनी में आने के बाद भी अपना हक़ लेने के लिए संघर्ष नहीं करते हैं, जब संविधान में भी हल ना मिले तो संविधान में आवश्यक परिवर्तन के लिए मैं आपके साथ खड़ा हूँ।
( ब्लोगरी दो तरफ़ा संवाद का अच्छा माध्यम है, मैंने अपना ब्लॉग http://sulabhjaiswal.wordpress.com/ लिखना लगभग बंद कर दिया है असल में मैं भी कुछ वर्षों से अपने ग्रामीण/शहरी/पारिवारिक/ सामाजिक समस्याओं के समाधान की तलाश में भटक रहा हूँ, अब कठोर निर्णय लेने के लिए ज्यादा नहीं सोचता हूँ, कि लोग क्या कहेंगे! )
सुलभ मैं आपकी सभी बातों से पूर्णतः सहमत हूँ. लेकिन अब भी गाँवों में घरों के मामले अदालतों में नहीं सुलझाए जाते हैं. और ये उम्मीद कैसे की जा सकती है कि लड़की अपने माँ-बाप के घर के अन्दर रहकर कानूनी लड़ाई लड़ लेगी. इसके लिए उसे घर छोड़ना पड़ेगा, जो कि एक अकेली लड़की के लिए बहुत मुश्किल है. हाँ, मेरा दरवाजा मेरी ऐसी बहनों के लिए हमेशा खुला है, लेकिन दिल्ली तो बहुत दूर है. उसे तो गाँव से बाहर नहीं जाने दिया जाता. मेरी दीदी पर सबका विश्वास है इसलिए उनसे बात कर लेती है. और उन्हीं से ये बातें मुझे पता चलीं.
मैं अगर चाहूँ तो बहुत कुछ कर सकती हूँ, लेकिन किसी लड़की को उसके घर से विद्रोह करने के लिए राजी नहीं कर सकती. बहुत बार कोशिश की है. घरतोडू की उपाधि से भी नवाजी गयी हूँ. कोशिश कर रहे हैं हम देखो क्या होता है?
मार्मिक कहानी | यदि ये सच है तो इसके लिए कुछ न कुछ कदम ज़रूर उठाना चाहियें | यदि हम सब ब्लॉगर मित्र कुछ सहयोग कर पायें तो ख़ुशी होगी |
यहाँ भी पधारें और लेखन पसंद आने पर अनुसरण करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
आज की ब्लॉग बुलेटिन ये कि मैं झूठ बोल्यां मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
Padhane likhane ka kya fayada hua jab ghar me hi baithana tha . ladki ko apni aawaj buland karni chahiye , jab ghar wale apne nahi to fir ghar kaisa? use naukri ke liye apply karna chahiye aur jaise hi kahi b koi choti moti job lag jaye chup chap ghar se nikal jana chahiye . fir itni himmat to honi chahiye ki kudh ko kaise sambhale .
आराधनाजी
कोई रास्ता बता भी तो रास्तो पर चलना स्वयम को ही पड़ना पड़ता है ।
मै भी आपको एक उदाहरन दूंगी एक साफ्ट वेयर इंजिनियर लडकी जो पिछले सात साल से यहाँ बेंगलोर में काम कर रही
है जो उत्तर भारत से है मोटी तनखाह अपने परिवार वालो को भेजती है जिसमे भाई भाभी माँ पिताजी सभी है .और तभी से
उसके लिए योग्य वर की तलाश की जा रही है परिवार के द्वारा जिसके लिए उन्होंने नकली मंगली पत्रिका बनवाई है जो की
उस लडकी को मालूम हो गया है फिर भी वो अपने परिवार के फैसले को सर्वोपरी मानती है ।
दुखी होना वाजिब ही है!
बहुत ही शर्मनाक है इस परिवार की स्थिति! स्वार्थ और लालच इंसान को कितना गिरा देता है… 😦
~सादर!!!
sharbpratham, “dahej na lene ka pran le”
bahut serious topic hai jo sabke sath ho sakti hai…….
jyada jaroori hai iska result…….
अपने स्नेहिलों को कैसी कारा में डाल दिया है हमारी मानसिकता ने, मुक्ति ही साधन है
अपनी स्वयं की हिम्मत से ही बाहर निकल सकती है लडकी। हिम्मत तो जुटानी होगी।