मेरा मोहल्ला मोहब्बत वाला

कभी-कभी मेरा किसी विषय पर लिखने का जोर से मन होता है और मैं लिख जाती हूँ. कुछ दिन पहले अपने मोहल्ले पर एक लेख लिख डाला, लेकिन पोस्ट नहीं किया. ऐसा मैंने पहली बार किया. अमूमन तो मैं सीधे डैशबोर्ड पर टाइप करती हूँ और पोस्ट कर देती हूँ. कभी ड्राफ्ट नहीं बनाती, पर ये लेख मैंने बारहा पैड पर लिखकर सेव कर लिया था. अब पोस्ट कर रही हूँ. सधी-सादी वर्णनात्मक सी पोस्ट है.

असल में मुझे अपना मोहल्ला बहुत अच्छा लगता है. थोड़े लोवर इनकम वाले लोगों का है, थोड़ा गन्दा भी है. पर माहौल अच्छा है. कुछ बातें ऐसी हैं, जो इसे और मोहल्लों से अलग करती हैं. खासकर के मिश्रित संस्कृति.

प्यार के पंछी

उत्तरी दिल्ली के इस मोहल्ले का नाम गाँधीविहार है. यहाँ से थोड़ी दूर मुखर्जीनगर में सिविल सर्विसेज़ की बहुत सी कोचिंग हैं.दिल्ली यूनिवर्सिटी पास में है. इस कारण यहाँ विद्यार्थी और प्रतियोगी परीक्षार्थी काफी संख्या में रहते हैं. भारत का कोई कोना ऐसा नहीं है, जहाँ के लड़के-लड़कियाँ यहाँ न रहते हों. स्वयं मेरे दोस्तों में महाराष्ट्रियन भी हैं और बिहार के (‘बिहारी’ नहीं कहूँगी, यहाँ इसे गाली की तरह इस्तेमाल करते हैं) भी और दक्षिण भारतीय भी.

अपना देश इतनी विविध संस्कृतियों वाला है कि यहाँ प्रदेश, महानगर, नगर, कस्बे, मोहल्लों की ही नहीं, एक मोहल्ले की हर गली का अपना कल्चर है. यही हाल गाँधीविहार का है. यहाँ का ‘ई’ ब्लॉक अपने को पॉश कालोनी से कम नहीं समझता और ‘सी’ ब्लॉक को सी ग्रेड का समझता है. फिर भी सब मिलजुलकर रहते हैं. क्रिकेट मैच के समय यहाँ की एकता देखते बनती है. बीच के बड़े से पार्क में चंदा इकट्ठा करके बड़ी सी एल.सी.डी. टी.वी. लगवाते हैं. कुछ लोग अपने घरों से कुर्सियाँ ले जाकर तो कुछ खड़े होकर मैच देखते हैं, सब्ज़ी वाले, भावी आई.ए.एस. ऑफ़िसर के साथ; लोकल लोग, आउटसाइडर्स के साथ; अनपढ़ लोग, पी.एच.डी. वाले लोगों के साथ.

मज़े की बात यह है कि इस छोटे से मोहल्ले में लगभग सभी धर्मों के लोग ही नहीं रहते, बल्कि अधिकांश धर्मों के धर्मस्थल भी यहाँ उपस्थित हैं. मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा ही नहीं बौद्धमठ भी है. चर्च शायद नहीं है, पर ईसाई लोग बहुत हैं.

वो बात, जो इस मोहल्ले को आसपास के मोहल्लों से विशिष्ट बनाती है, वह है यहाँ पूर्वोत्तर के लोगों का बहुसंख्या में होना. देश के इस कोने के विद्यार्थी तो बहुसंख्या में हैं ही, बहुत से पूर्वोत्तरी यहाँ घर लेकर स्थाई रूप से रहने भी लगे हैं. इसके अतिरिक्त बिहार के लोग भी बहुतायत में हैं. इससे यहाँ का कल्चर खिचड़ी बन गया है… एक दही, पापड़, सलाद और अचार वाली खिचड़ी. पर विशेषता पूर्वोत्तर के लोगों के कारण ही है. यह बात मैं बार-बार इसलिये कह रही हूँ क्योंकि इनकी संस्कृति थोड़ी अलग सी है.

यहाँ रहने वाले पूर्वोत्तर के विद्यार्थी लोकल लोगों (दिल्ली वालों) से अधिक घुलते-मिलते नहीं. वे अपने में ही मस्त रहते हैं. दिल्ली वाले भी इन्हें ‘चिंकी’ कहकर बुलाते हैं, जिससे ये लोग चिढ़ते हैं. पूर्वोत्तर के ये विद्यार्थी अधिकतर एस.टी. कैटेगरी के हैं. अच्छी खासी स्कालरशिप मिलती है. सीधे-सादे होते हैं. इन बातों के कारण कुछ लोग इन्हें कमरा किराये पर आसानी से दे देते हैं. पर जिन लोगों के घर पर किशोर युवक-युवतियाँ हैं. वे लोग इन्हें रूम नहीं देना चाहते, कारण – ये लोग वो सब करते हैं, जो ‘बच्चों को बिगाड़ने’ में सहायक है. पूर्वोत्तरी लोग ड्रिंक करते हैं, लेट नाइट पार्टीज़ में जाते हैं, हर तरह का नॉनवेज खाते हैं और सबसे अलग बात, बिना शादी के लड़का-लड़की साथ-साथ रहते हैं. गर्मी की शामों को पीछे के खुले मैदान में खुलेआम, हाथों में हाथ लिये घूमते हैं…ना किसी बात का डर, ना किसी चीज़ की फ़िक्र…तब प्यार यहाँ हवाओं में तैरता है… फिज़ाओं में बहता है… बिना रोकटोक.

ऐसा नहीं है कि लोकल या अन्य राज्यों के लड़के-लड़कियाँ ऐसा नहीं करते हैं, पर पूर्वोत्तरी लोग यह सब खुलेआम करते हैं क्योंकि यह खुलापन उनकी संस्कृति का हिस्सा है और पूर्वोत्तर की संस्कृति, भारतीय संस्कृति का अभिन्न भाग है. ये बात यहाँ के लोगों को समझ में नहीं आती… और भारतीय संस्कृति के ठेकेदारों को भी जाने कब समझ में आएगी ?

तो ऐसा है हमारा गाँधीविहार, मेरा मोहल्ला मोहब्बत वाला. एक मिनी इण्डिया, एक “लघु भारत”, जहाँ लोग एक-दूसरे को गरियाते भी हैं और साथ रहते भी हैं और वो भी मिलजुलकर, तब तक, जब तक कि कोई उन्हें यह कहकर भड़का ना दे कि “उठो ! तुम्हारी संस्कृति खतरे में है…”


44 विचार “मेरा मोहल्ला मोहब्बत वाला&rdquo पर;

  1. डाक्टर आराधना जी , यह मोहब्बत का मामला कम बल्कि कई संस्कृतियों के मिल जाने से किसी दूसरी दुनिया का जो की प्रगतिशील है, विकाशशील है बाज़ार से प्रभावित है और दकियानूश भी है . यही अद्भुत भारत की सच्ची तस्वीर है / किसी पानी के जहाज जैसा है आपका यह गाँधी विहार मोहल्ला, यात्रियों के आने और जाने से बदलती है जिसकी फिज़ाए /

    1. बिल्कुल सही, बाज़ार का ही गणित है, जो यहाँ वाले पूर्वोत्तरी लोगों को बर्दाश्त कर लेते हैं, वरना तो कब का भगा दिया होता… पर मैं पूर्वोत्तरी लोगों की बात कर रही थी. उनका बिंदास होना कहीं ना कहीं यहाँ की संस्कृति को प्रभावित करता है. इसीलिये यहाँ नॉर्थ के कुछ प्रदेशों के प्रेमी युगल भी लिव इन में रह पाते हैं. ये बात यहाँ के आसपास के मोहल्लों में नहीं है, जबकि बाज़ार का फैक्टर तो मुखर्जीनगर, इन्द्रा विहार, परमानंद, मालरोड, हडसन लें वगैरह में भी है.

      1. ठीक कहा आपने, मुझे लगता है की मै अपनी ही बात को फिर से परिभाषित करू / बाज़ार की संस्कृति पूर्वोत्तर के युवा – युवतियों को बिना ब्याह किये साथ में रहने की अनुमति दिलाता है / वही बाजार मध्य भारत या पश्चिमी भारत के लोगों को कैसे इससे वंचित कर सकता है / फिर यह आप क्यों भूल रही है की गांधी विहार मोहल्ले का इतिहास क्या रहा है / यह मोहल्ला कई संस्कृतियों को एक साथ लेकरके ही बसा था / रही बात अन्य मोहल्लों की तो खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग बदलता है आने वाले समय में उन सब मोहल्लों के लिए भी यह सामान्य बात हो जायेगी / खास बात यह है की पूरी दिल्ली में महिलाएं सुरक्षित नहीं है लेकिन गांधी विहार में लगता है महिलाएं काफी हद तक सुरक्षित है / मैंने कभी कोई छेडछाड या जबरदस्ती की घटना के बारे में नहीं सूना है / आप को शायद जादा जानकारी होगी / इस मामले को लेकरके मै कह सकता हूँ की, गांधी विहार एक अच्छा मोहल्ला है /

      2. हाँ, काफी हद तक सुरक्षित है. मैं बेधड़क रात के बारह बजे अगले ब्लॉक में कूड़ा फेंकने चली जाती हूँ… जब हमलोग साथ स्टडी करते थे, तो अरुण के यहाँ से रात में दो-ढाई बजे मैं अकेले अपने रूम पर आ जाती थी. पूर्वोत्तर की लड़कियों को यहाँ के लोकल लड़के छेड़ देते हैं कभी-कभी, पर बात गंभीर नहीं होने पाती क्योंकि उनकी रोटी-दाल इन्हीं बाहर से आये लोगों से चलती है. पिछले पाँच साल में बस एक वही मामला सुनने में आया था…नहीं तो ऐसी घटनाएँ बिल्कुल नहीं सुनाई पड़तीं.
        वैसे ये तो जानते ही हो कि और मुहल्लेवाले यहाँ वालों को अच्छी नज़र से नहीं देखते… बात वही है ‘लिव इन’ वाली … उनको लगता है कि यहाँ रहने वाले सारे लड़के-लड़कियाँ ऐसे ही रहते हैं. 🙂 जबकि ये आंशिक सच है… और मेरे ख्याल से तो यही इस जगह की खूबी है 🙂 मोहल्ला मोहब्बत वाला होना.

      3. अब मानसिकताएं बदलने में तो सदियों लगती है / बाजार जल्दी – जल्दी बदलने पर मजबूर करता है / आप ऐसे किसी मोहल्ले की कल्पना इलाहाबाद या उत्तर प्रदेश के किसी भी जनपद में कर सकती है क्या ? शायद नहीं, कारण कई है लेकिन दकियानूशी समाज बाजार को भी नहीं स्वीकारने को तैयार है, लड़ मरता और मार डालता है संस्कृति के नाम पर /

    2. इन सब बातों से मुझे अपनी एक आप बीती याद आ गयी / अप्रैल में मामाजी के घर जाना हुआ, मेरे ५ सगे और ३ चचेरे मामा है, सब ने एक सुर से कहा की थाईलैंड तो बहुत खराब देश है वहा पर वेश्यावृत्ती बड़े पैमाने पर होती है, तुम वहा क्यों काम करते हो ? यही भारत में कोई काम क्यों नहीं करते हो ? मै थोड़ी देर चुप रहा फिर मैंने कहा आप आठों लोगों में से मुझे कोई बताए की भारत में कोई भी एक ऐसा जिला आप लोगों ने देखा है जहा पर लाल बत्ती क्षेत्र न हो ? आराधना उस समय उन आठ लोगों का चेहरा देखने लायक था, कई रंगों के बादल आये और गए लेकिन मुह से बोल नहीं फूटा आधा घंटा तक / फिर सबसे बड़े मामाजी कहते है, तुमसे तो बात करना ही बेकार है / जवाब देखना सीख गए हो / मैंने कहा मै आप सभी लोगों को थाईलैंड आने के लिए आमंत्रित कर रहा हूँ, आप आइये और अगर भारत से जादा बुराई वहा दिख जाए तो मै उसी दिन इस्तीफ़ा देकरके आप लोगों के साथ लौट आउंगा और पासपोर्ट भी फाड़ दूंगा की आगे भविष्य में मै कही दूसरे देश में नहीं जाउंगा / कोई हां नहीं बोला /

      1. ये तो मानते ही हो ना कि अपने देश में हर वो काम गुनाह है जो खुलकर, बिना छुपाये किया जाता है, छुप-छुपकर कुछ भी करो …माफ़ है. कई दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता प्राप्त है और वेश्याओं को अधिकार मिले हैं…सब सामने है इसलिए गुनाह है… यही हमारे यहाँ छिपकर होता है, तो माफ़ी.

  2. अरे! वाह… यह बिलकुल लाइव टेलीकास्टिंग… किया है …मोहल्ले का…. वैसे मुखेर्जीनगर में मैं भी रह चुका हूँ…. सोशिओलौजी की कोचिंग करने गया था…. मेरा सेकंड आप्शन सोशिओलौजी ही था… तो वहीँ मुखर्जीनगर में ३ महीने रहा था…. मुझे भी वहीँ जाकर पता चला कि नोर्थ-ईस्ट वालों को चिंकी पुकारा जाता है…

  3. यह विवरण आपने कहीं पहले टिपियाया भी है,मुझे याद आ रहा है …परिवेश के मुताबिक़ न रहना भी ठीक नहीं है….डू इन रोम एज रोमंस डू पुरानी कहावत है -ठीक भी है !

  4. पूर्वोत्तर के लोग काफी फ्री रहते हैं ये तो कई साल से देखते चले आ रहे हैं.हाँ ये सहनशील भी होते हैं और अपने में मस्त रहते हैं.यही खासियत है इनकी.
    आज आप के ‘मोहब्बत वाले मोहल्ले के बारे में भी पढ़ा और जाना.
    आभार

  5. आराधना…..तुम्हारे मोहल्ले से हमें भी प्यार है…सच….और सच तो यह है कि हमें भी हर उस मोहल्ले से प्यार है….जहां कोई भी नागरिक एक देशवासी होकर रहता हो,

  6. तुम्हारे मोहल्ले की जानकारी प्राप्त हुई ….हालाँकि हमारे संस्कारों के अनुरूप तो नहीं है …मगर हर इंसान को अपने तरीके से जीने का अधिकार है …
    हमारे शहर के एक सज्जन दिल्ली गए बेटी का एडमिशन कराने …उलटे पैरों लौट आये … तुम्हारा मोहल्ला तो नहीं देख आये थे कहीं …:):)

    1. देख लिया होगा मेरा मोहल्ला 🙂 लेकिन मैं बता दूँ कि मेरे इलाहाबाद के कई परिचित हैं, जो वहाँ रीडर, प्रोफ़ेसर और अन्य हाई प्रोफाइल पदों पर हैं. उनके बच्चे यहाँ पढ़ने आये और अब अपने-अपने ब्वॉयफ्रैंड या गर्लफ्रैंड के साथ रह रहे हैं. जाहिर है वो हाई प्रोफाइल लोग हमारे मोहल्ले में नहीं रह सकते… पाश कालोनी में रहते हैं…
      माँ-बाप क्या करें? … या फिर बच्चों को घर में बंद रखें या बदलते माहौल के साथ सामंजस्य बिठाएं…तो वो दूसरा ऑप्शन पसंद करते हैं. बच्चों को कौन खोना चाहेगा???

  7. एक बसाहट में रहनें की पृष्ठभूमि में कारण जो भी हों , संस्कृतियों का मिलन एक बड़ी घटना है जिसमें आप भी हिस्सेदार हैं ! सहजीविता / सहअस्तित्व / सहिष्णुता की बुनियाद ऐसे ही पड़ती है !
    पूर्वोत्तर के बारे में दो बात जरुर कहना चाहूंगा , एक तो ये कि वहां साक्षरता का प्रतिशत देश के औसत से कहीं ज्यादा है , यकीनन ऐसा ईसाइयत के संपर्क के कारण हुआ है और दूसरा ये कि वे मूलतः वे आदिवासी समाज हैं जिनमें यौन कुंठाओं की गुंजायश ज़रा कम है !

  8. खूब लिखा आपने अपने इस मोहल्ले के बारे में
    अछा ख़ासा विवरण है,,, जो और जानने के लिए उत्साहित करता है
    और… हर तरह के लोग हर जगह ही मिल जाते हैं
    कहीं कुछ कम,,, कहीं कुछ ज़्यादा

  9. सच मोहब्बत वाला मोहल्ला है तुम्हारा, ये अलग अलग जगह की संस्कृति ही, ख़ूबसूरत बनाती है महौल को और लोगों को सह-अस्तित्व और सहिष्णु होने का पाठ भी पढ़ाती है.

    5 साल रही हूँ दिल्ली में…वहीँ जाकर पता चला…कि ‘बिहारी ‘ छोटी मोटी गाली की तरह इस्तेमाल करते हैं..बच्चे भी आपस में झगड़ते हुए कहते हैं..”बिहारी कहीं का”.
    मेरी पड़ोसन (पंजाबन ) जब मेकअप नहीं करती थी तो उसके पति कहते “क्या बिहारन लग रही है”
    और वह टोक देती…’ अब सामने एक ‘बिहारी’ रहने आ गए हैं, इस तरह मत बोला करो..”:)

  10. पिछले 5 साल से ज़्यादा से मै दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्र में रह रहा हूँ. यहां लोगों का आपस में भेदभाव देखकर कई बार इस सोच में ड़ूब जाता होँ के दुनिया के दूसरे देशों को ‘रेसिस्ट’ कहने से ना चूकनेवाले हमारे देश के लोग क्या खुद कम रेसिस्ट हैं?

    पिछले दिनों कार्यवश ईंग्लैंड़ आना हुआ. मुझे काफी लोगों ने कहाअ था के यहां के लोग काफ़ी भेदभाव करते हैं, क्योंकि आप की चमड़ी का रंग अलग है, आपका खाना अलग है, आपकी भाषा अलग है. वो आपको इज़्ज़त नहीं देते.

    पर सच कहूं तो यहां आकर समझा के यहां के लोगों से चाहे हमारा रंग, खाना, ज़बान अलग हो, इस बात से किसी को कोई लेना देना नहीं, थोड़ा भेद=भाव है पर सच देखा जाये तो जिस तरह का भेद-भाव हमारे अपने देश में है उसके सामने तो यहां कुछ है ही नहीं.

    और हमारे यहां, बहुत शर्म से कह रहा हूँ, हर बात का भेदभाव है. ‘बिहारी’, ‘चिंकी’, ‘मद्रासी’, ‘भैया’, ‘बंगाली’, ‘गुज्जू’, ‘मल्लू’, ‘जाट’, ‘मुल्ला’, ‘कढ़ी’, ‘सिंधी’, ‘बनिया’, ‘भंगी’, ‘शाबजी’, ‘सरदार’, ‘कल्लू’ – ये सिर्फ कुछ उदाहरण हैं हमारी भेदभाव की प्रवृत्ति के.

    जाती, धर्म, राज्य, भाषा, व्यवसाय, रंग – हमारे पास हर तरह का बहाना है दूसरं से अलग बर्ताव करने का. और सिर्फ़ ये ही क्लासिफिकेशन नहीं हैं, क्लासिफिकेशन के अंदर क्लासिफिकेशन हैं. मै बड़ा ब्राह्मण तू छोटा ब्राह्मण, मै दिगंबर तू श्वेताम्बर, मै वैष्णव तू शैव, मै उच्च कुल तू नीचे का कुल, मै शिया तू सुन्नी…

    और ये लड़ाई हर जगह है, पार्लियामेंट से लेकर आम आदमी के दिमाग तक, मोहल्ले से लेकर मुझ तक, आप तक…

    कौन है सबसे बड़ा रेसिस्ट हम हिंदुस्तानियों के सिवा…….

  11. आराधना जी,
    पहले भी एक बार आ चूका हूँ आपके इस पोस्ट पे…
    लेकिन बिना कमेन्ट किये वापस गया था..
    आज ऐसे ही कुछ बातों से दिल थोडा उदास हो गया था, तो सोचा की आपके ब्लॉग के कुछ पोस्ट पढ़ लूँ फिर से….अच्छा लग रहा है अब ये पढ़ के…आपके मोहल्ले में कभी आऊंगा…:)

  12. मैं तो लखनऊ में रहता हूँ और लखनऊ में ही रहता हूँ. 🙂
    कभी कभार बनारस घूम आया हूँ. बस.
    पर ये लघु भारतवर्ष तो है ही. सही संज्ञा दी है आपने.

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