नखलऊवा की कहानी में मैंने अपनी ओर से कोई मिलावट नहीं की है. ये ऐसे ही मिली थी मुझे मय नमक-मिर्च और बैसवारे के आमों से बने अमचूर पड़े अचार की तरह, चटपटी और जायकेदार. इसका महत्त्व इस बात में नहीं कि ये बनी कैसे ? इस बात में है कि हमारे सामने परोसी कैसे गयी?
ये कहानी सच्ची है. उतनी ही सच्ची जितनी कि ये बात कि लखनऊ के गाँवों में बहुत से लोग अब भी उसे ‘नखलऊ’ कहते हैं, जितना कि बैसवारे का ठेठपना और वहाँ के लोगों की बड़ी सी बड़ी समस्या को हँसी-हँसी में उड़ा देने की फितरत.
मेरे पिताजी के अभिन्न मित्र थे हमारे बसंत चाचा. उनका गाँव जैतीपुर में था, जो कि लखनऊ और उन्नाव के बीच में एक छोटा सा रेलवे स्टेशन है. हमलोग अक्सर वहाँ चले जाते थे. दूर तक फैली ऊसर ज़मीन, उस पर खजूर के पेड़ और एक बरसाती नाला मिलकर हमें अपनी ओर खींचते थे. ऐसे ही एक बार मैं और मेरी दीदी पहुँचे चाचा के गाँव. स्टेशन तक पैसेंजर गाड़ी से और उसके बाद बैलगाड़ी से.
चाचा की बहू बहुत ही हंसमुख थीं. जब हम घर पहुँचे तो आँगन में चारपाई पर बैठी सरौते से सुपारी काट रही थीं. भईयल (चाचा के बड़े लड़के) बरामदे में बैठे थे. हम दोनों को देखकर मुस्कुराए तो लगा जैसे कोई उनकी कनपटी पर कट्टा लगाकर उन्हें ऐसा करने के लिए विवश कर रहा हो. हमने भाभी से इशारों में पूछा तो बोलीं, “बेचारे परेसान हैं नखलऊवा वाली बात ते.” “ए” भैय्यल गुर्राए. भाभी हँसकर हमलोगों के लिए चाय बनाने चली गयीं.
चाय पीते-पीते हमने पूछा, “भाभी, ये नखलऊवा कौन है?” तो झपटकर जवाब भैय्यल ने दिया, “अरे कउनो नहीं बिटिया (वहाँ छोटी बहन को बिटिया कहते हैं) इ तुम्हरी भाभी के दिमाग का फितूर है” इस पर भाभी बोलीं, “अच्छा, तुम जाव हियाँ ते. बाहर बइठो” “बिटिया होरी, इनकी बातन में ना आयो. दिमाग फिरा परा है आजकल इनका” कहते हुए भैय्यल चले गए. बस फिर क्या था? भाभी शुरू हो गयीं कहानी कहने, “बिट्टी का देखे हो तुम पंचिन?”
“कौन ? वो जो लखनऊ में पढ़ती हैं. कलंदर चाचा की बिटिया?”
“हाँ, उनही का टांका याक लरिका ते भिड़िगा नखलऊ मा”
“हैं ?”
“गरमी की छुट्टी मा जब बिट्टी घरे आयीं. तो पीछे-पीछे नखलऊवौ चला आवा”
“फिर?”
“बिट्टी चुप्पे ते वहिका ख्यात (खेत) वाले घर कै चाबी दई दिहिन.”
“?”
“बिट्टी रोज सुबे-साम नखलऊवा का खाना देवै और और वहिसे मिलै खातिर जात रहिन. तो तुम्हरे भैया और इनके दोस्तन का सक हुईगा.”
“फिर?”
“फिर का ? इ लोग याक दिन बिट्टी के पीछे गयेन और ज्यों बिट्टी नखलऊवा ते मिलिके वापस गयिन. इ लोग नखलऊवा पे टूट परेन और वहिकै कम्बल परेड करि डारिन.”
“क्यों?” हमदोनों एक साथ बोले.
“अरे ! इन लोगन से बरदास्त नहीं हुआ कि इनके गाँव की लड़की कौनो बाहरी ते नैन-मटक्का करै.”
“हाँ-हाँ, खूब नमक-मर्चा लगाके सुनाव बिटियन का.” भैय्यल फिर टपक पड़े.
“तुम फिर आ गयो?” भाभी बोलीं.
“अउर का? तुम हमरी बदनामी काहे करि रही हो सबते?”
“तुम बड़े नाम वाले हो ना? तुम ते कहा ना, बाहर जाओ. हमका बिटियन ते कुछ पराइवेट बात करै का है.”
भैय्यल ने बरामदे में ताक पर रखा पान-मसाले का डिब्बा उठाया और उसमें से एक चुटकी मसाला मुँह में दबाकर बाहर चले गए. उनके बाहर जाते ही भाभी ने फुर्ती से बाहर का दरवाजा अंदर से बंद कर दिया. भैय्यल जब खटखटाने लगे, तो भाभी बोलीं, “जाओ, नहीं तो दद्दा से सिकायत करि देबे.” भाभी ‘दद्दा’ हमारे चाचा (यानी उनके ससुर जी) को कहती थीं. हमलोगों को भैया-भाभी की आँख-मिचौली देखने में खूब मज़ा आ रहा था. बेचारे भैय्यल को मन मारकर बाहर बैठना पड़ा. अब हमारी उत्सुकता चरम पर थी. दीदी ने झट से पूछा, “भाभी, फिर क्या हुआ?”
“इ लोग टूटे-फूटे नखलऊवा का नखलऊ जाए वाली पसिंजर मा बइठा दिहिन. इधर जब बिट्टी का पता चला तो वी धरना पर बइठ गयीं. कहीं ‘बिहाव करिबे तो परनब (नखलऊवा का नाम) ते नहीं तो बिहावै ना करिबे”
“वाह! क्या बात है!” मैंने कहा. दीदी ने आँखे तरेरकर मुझे देखा.
“तुम्हरी पंचिन तो जनती ही हो कि कलंदर चाचा की इकलौती लाड़ली बिटिया हैं बिट्टी. तो कलंदर चाचा मानि गएँ.”
“तो क्या बिट्टी की शादी उसी से हुयी है?” दीदी ने पूछा.
“अउर का? और तुम्हरे भईया लोगन जउने नखलऊवा का तोड़-फोड़ के नखलऊ पठाए रहेन, वही की पाँव पुजाही करै का पड़िगा”
“ओह तो इसीलिये भैय्यल इतना चिढ़ रहे हैं?”
तभी दरवाजा खटखटाने की आवाज़ आयी. मैंने लपककर दरवाजा खोला. इस किस्से के बाद भैय्यल का चेहरा देखने का बड़ा मन कर रहा था. वो “हें हें” करते आये, “बताय दिहिन पूरी इस्टोरी तुम्हरी भाभी” “हाँ” मैंने कहा. “तुम्हरी भाभी का बंबई भेज दिहा जाए तो इस्टोरी लिखिके खूब पईसा कमइहैं.” भाभी के सर पर एक चपत लगाते हुए जाकर बरामदे में बैठे. भाभी बोलीं, “चैन नहीं परा नखलऊवा कै जूता चुराई करिके. दद्दा ते मार खइहो? चले रहें बिटियन की चौकीदारी करै.” भैय्यल ने तकिया उठाकर भाभी के ऊपर फेंका तो वो भागकर रसोई में छिप गईं. बाद में पता चला कि पूरे गाँव में नखलऊवा, भैय्यल एंड पार्टी और भाभी को छोड़कर कोई नहीं जानता था कि कम्बल परेड की किसने? और भाभी इस बात का फायदा उठाकर भैय्यल को ये कहकर ब्लैकमेल करती थीं, “दद्दा से बता देबे.” बेचारे भैय्यल.
नखलऊवा की कहानी आज भी वहाँ से हमारे तार जोड़े हुए है. इस बार दीदी के यहाँ भरूच जाना हुआ, तो हमदोनों “नखलऊवा” का किस्सा याद करके खूब हँसे.
क्या बात है आराधना…ये ‘नखलुआ’ का किस्सा तो खूबे बढ़िया रहा…एकदम उसी आंचलिक भाषा में तुमने जैसे शब्दशः लिख दी है, सारी बातचीत…मजा आ गया पढ़ कर.
और वे धूप छाँव वाली तस्वीरें तो क्या लग रही हैं…ये तस्वीरें अपनी बैक सीट ली हुई पेंटिंग की याद दिला देती हैं..मन हो रहा है…की-बोर्ड छोड़..ब्रश पकड़ लूँ..
आराधना सिर्फ १० % समझ में आया 😦
शिखा जी, इस कहानी को अगर खड़ी बोली में लिखेंगे तो इसका स्वाद जाता रहेगा. इसलिए अवधी-बैसवारी बोली में लिखना मजबूरी थी
शिखा को समझ नहीं आया !!!!!!!
का भाई कंबल परेड
हा हा मज़ा आ गयो . ओइसे भी जैतीपुर वाले खुराफाती होत है .याक दिन हमहू फस गए रहे उनका बदमाशी मा कानपुर से नाखलाऊ के टरेन मा.
गज़ब कर दिया आराधना, दादी की याद दिला दी हमेशा nakhlau ही कहती थी .. भाषा गज़ब की है आंचलिक भाषा का असर और मज़ा अलग है ..
सारे चित्र आँखों के सामने घूम गए
🙂 🙂 बहुत बढ़िया किस्सा ..बहुत लोगों को नखलऊ कहते सुना है ..पर यहाँ तो नखलऊवा का किस्सा बहुत ज़बरदस्त रहा .. :):)
पराइवेट बात >>>>>नो कमेन्ट !
मस्त रहा यह किस्सा. किस्सागोई की शैली भी बढ़िया लगी.
प्रिय आराधना जी ,
आज इतने मन से मेल फीडर के थ्रू आई इस पोस्ट को पढना शुरू किया क्योंकि आपके पिछले पोस्ट अति गूढ़ और मार्मिक रहे हैं . पर जैसे ये एक तिहाई पोस्ट पढ़ी तो आपका गला दबाने का मन हो आया कि ये क्या लिखा हैं कुछ समझ में नहीं आया . आपने इतना इमोशनल अत्याचार किया कि लगा कि क्यों इतना दिल से पोस्ट पढना शुरू किया था . काश आप संवाद हिंदी में लिख देती . अब आप कहेंगी कि मूल भावना से खिलवाड़ हो जाता खैर आपका ब्लॉग हैं कुछ भी लिखो अब हमें कोई नैतिक हक़ तो नहीं पर एक संवेदनशील पोस्ट कि अपेक्षा कि वजह से मन उदास हो गया .
sorry for being rude in the comment, but I never resist my self for being honest . I was just joking but Really I am not able to get at all this post’s content.
वीरेंदर जी,
अफ़सोस कि आप निराश हुए, पर मेरे कुछ दोस्त मेरी बहुत सीरियस पोस्ट्स से परेशान हो गए थे. उन्हें मेरी चिंता हो आयी थी. सो माहौल हल्का करना पड़ा.
हा हा हा ! कम्बल परेड खूब रही …. सधी हुई कहानी .. बहुत अच्छी लगी बैसवारा बोली … बैसवारा एक विशेषता के लिए हमारे यहाँ प्रसिद्ध है कि … वहाँ दिखावे का रिवाज़ है है “दम बना रहे, घर चुवत रहे” की तर्ज़ पर … 🙂
पद्म जी, ये सही कहा आपने. बैसवारा के लोग दिखावा करते हैं, पर पैसे का दिखावा नहीं, केवल बाहुबल की.
मजेदार किस्सा है। कम्बल परेड किसने की यह खुलासा कौन करेगा? 🙂
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लक्ष्मन्पुरी- लखनपुरी- लखनऊ – को बहुत से लोग नखलाउ भी कहते हैं, छोटे बच्चे शायद सबसे ज्यादा। बहुत रोचक घटना बताई आपने । लखनऊ के बांके छोरे से टांका भिडाकर नुक्सान में नहीं रहेगी वो लड़की। बेकार ही उसके परिवार वालों ने इतनी जेहमत मोल ली।
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आम ब्लॉग पोस्टों की बजाय बहुत ध्यान से धीरे धीरे पढना होगा इस कहानी का मजा लेने के लिए -मैंने भी दुबारा पढी 🙂
कम्बल का ‘काम’ वहां पहले से ही रहा होगा ….परेड में भी काम आ गया 🙂 🙂
परनब कहीं वे अपने टाईम्स चैनेल वाले तो नहीं हैं !
आपने अपने इस संस्मरण में गाँव गवईं के आख्यानों में से एक को जीवंत कर दिया -गवईं विवशताएँ और धर्मसंकट भी तो कैसे कैसे होते हैं न ? पहले उसी की कम्बल परेड करा दी ..अब बच्चू पाँव पूजो ….हा हा हा हा
बचपन में कई दिनों तक लखनऊ को नखलऊ और बुशर्ट को बुस्कैट बोलते रहे। पुनः वे दिन याद आ गये।
जितनी वास्तविक भाषा है उतनी ही वास्तविक कहानी….जबर्दुस्त…अपनी तीन उन्गिलिया मोड़ कर दुई उंगुलिया से सलाम करते हैं आपको….बेहतरीन…
Majedaar Raha.. 🙂
बहुत मजेदार किस्सा रहा।
कम्बल परेड और नखलऊवा सुनते ही हँसी छूट पड़ी..बहुत रोचक और मजेदार शैली रही…किस्सा एकदम जीवंत हो उठा..मजा आ गया..
बहुतै जबरजस्त रहा इ नखलऊवे वाला किस्सा…बहुतै नीक लागा
यह भी खूब रही…
बड़ा ही रोचक संस्मरण है 🙂
main bhi lucknow ki hi nivasi hoo.aapka blog padh kar bahut aacha laga.phir saray lakh padhay such aap bahut aachee laykhika hai .
बहुत रोचक और जीवंत !
बंधे रहे एकदम !
आभार !
मै तो ननकऊ कहता था बचपन में लखनऊ को / हालांकि मुझे बैसवाड़ी समझ में आती है इसलिए बहुत अच्छा लगा /
Bahut hi acchi lagi.Premchand ke ganvai paatro ki yaad dila di Man khush kar diya.jeeti raho Aradhana.Ab to bata hi do ki kambal parade kisne karwai.Baharhal haardik badhai.
लेखन के लिये “उम्र कैदी” की ओर से शुभकामनाएँ।
जीवन तो इंसान ही नहीं, बल्कि सभी जीव जीते हैं, लेकिन इस समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, मनमानी और भेदभावपूर्ण व्यवस्था के चलते कुछ लोगों के लिये मानव जीवन ही अभिशाप बन जाता है। अपना घर जेल से भी बुरी जगह बन जाता है। जिसके चलते अनेक लोग मजबूर होकर अपराधी भी बन जाते है। मैंने ऐसे लोगों को अपराधी बनते देखा है। मैंने अपराधी नहीं बनने का मार्ग चुना। मेरा निर्णय कितना सही या गलत था, ये तो पाठकों को तय करना है, लेकिन जो कुछ मैं पिछले तीन दशक से आज तक झेलता रहा हूँ, सह रहा हूँ और सहते रहने को विवश हूँ। उसके लिए कौन जिम्मेदार है? यह आप अर्थात समाज को तय करना है!
मैं यह जरूर जनता हूँ कि जब तक मुझ जैसे परिस्थितियों में फंसे समस्याग्रस्त लोगों को समाज के लोग अपने हाल पर छोडकर आगे बढते जायेंगे, समाज के हालात लगातार बिगडते ही जायेंगे। बल्कि हालात बिगडते जाने का यह भी एक बडा कारण है।
भगवान ना करे, लेकिन कल को आप या आपका कोई भी इस प्रकार के षडयन्त्र का कभी भी शिकार हो सकता है!
अत: यदि आपके पास केवल कुछ मिनट का समय हो तो कृपया मुझ “उम्र-कैदी” का निम्न ब्लॉग पढने का कष्ट करें हो सकता है कि आपके अनुभवों/विचारों से मुझे कोई दिशा मिल जाये या मेरा जीवन संघर्ष आपके या अन्य किसी के काम आ जाये! लेकिन मुझे दया या रहम या दिखावटी सहानुभूति की जरूरत नहीं है।
थोड़े से ज्ञान के आधार पर, यह ब्लॉग मैं खुद लिख रहा हूँ, इसे और अच्छा बनाने के लिए तथा अधिकतम पाठकों तक पहुँचाने के लिए तकनीकी जानकारी प्रदान करने वालों का आभारी रहूँगा।
http://umraquaidi.blogspot.com/
उक्त ब्लॉग पर आपकी एक सार्थक व मार्गदर्शक टिप्पणी की उम्मीद के साथ-आपका शुभचिन्तक
“उम्र कैदी”
अउर त अउर, ई नखलऊआ हमार कमेन्टियो खाय गवा जनात है,
खैर राजी खुसी रहे, मुला हम कोनो गलत बात नहीं लिखा रहा ।
ओहिका नीकी-भला पन्दरा दिन पीछे अवेटिंग मॉडरेशन मा ईहाँ छाँड़ि गये रहेन ।
जनात है कि ई बिटिअउनी हमार कमेन्ट परसादो केर कम्बल परेड करा दिहिन ।
अमर जी, कसम खाय के कहत अहिन हम आपकेर कमेन्ट नहीं मिटावा. मुला बात तो ई है कि हमका आपका कमेन्ट मिलिबे नहीं किहा. लगत है कहूँ भाग गवा अउर आपका पतहे नहीं पड़ा.
OMG, itna sab kuch ho raha hai meri language ke saath………its fantasic work aradhna….i can sense how much effort you would have put to form this post. I speak this langauge whenever i go to my village its 50km far from lucknow. here in chicago u just made me feel the smell of my villeage thanks alot. take care.
thanks brijesh.
bahut hi jivant chitran hai aradhna……bilkul lag raha hai jaise sab samne dekh rahe hain…aur ye bhaiya bhabhi hamare apne hi hain….bilkul ghareloo sa laga….thanks itni pyari post ke liye……
ये तो डेडली है!!!! बाकी ये बताइए कम्बल परेड किसने की थी ???
भाई लोगों ने 😉 और कौन करेगा ?
bahut zabardast shaili hai .
मजा आ गवा आराधना हमका तो अईसा लागीं रहा है की १५ बीस साल पीछे चली गइन तुम पंचे तो बड़ा मज़ा किएउ जेईती पुर मा !
क्या तो मजेदार भाषा व क्या कहानी है! मजा आ गया. एक बात और है, यह गाँव की भाभी हम शहर वालियों से अधिक मुक्त हैं अपने पति से बातचीत में. अनेक शहरी स्त्रियाँ स्वप्न में भी पति को भागने की नहीं सोच सकती और न ही धमकाने की.
घुघूतीबासूती
सही कहा आपने! गाँव की ये भाभी शहरी औरतों से ज्यादा मुक्त थीं क्योंकि शहर की औरतों को ‘भली औरत’ बनने का ज्यादा शौक होता है:) हमारी भाभी तो पर्दा भी नहीं करती थीं और घर की लड़कियों की ही तरह रहती थीं. सास तो थी नहीं, अजिया(दादी) सास उनसे इसी बात पर खफा रहती थीं. हम जाते तो दादी हमसे भाभी की शिकायत करतीं और हमलोग चुपचाप सुन लेते. भाभी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. वो इन सब बातों को हँसी में टाल देती थीं.
आराधना जी अगर भाषा के साथ-२ वहां के बोलने का तरीका भी साथ होता, तो मजा ही आ जाता… 🙂
अवधी भाषा में पढ़ कर तो बहुते ही आनंद आया.